आज के बदलते परिवेश में रिश्तों को कोई अहमियत नही रह गई है फिर भी एक रिश्ता है जो सदा एक अहम् भूमिका निभाता है | न होते हुए भी लगता है की वो हमारे आस पास ही है, हमारी निगरानी कर रहा है | वह और कोई नही "माँ" का रिश्ता है | माँ महान है, माँ माखन है, माँ मिश्री है | ईश्वर ने भी तो कहा है की माँ मेरी और से एक दुर्लभ उपहार है | समुद्र ने कहा है ... की माँ एक सीपी है जो अपनी संतान के सभी दुःख अपने सीने में छुपा लेती है | तो बादल नें भी कहा है की माँ एक चमक है जिस में हर रंग उजागर होता है | माँ के लिए एक क्रूरतम शाषक नादिर शाह ने भी कहा है " मुझे फूल और माँ में कोई फर्क दिखाई नही देता " |औरंगजेब ने भी कहा की माँ के बिना घर कब्रिस्तान है | मेरा मानना है की माँ के क़दमों तले ही स्वर्ग है | वे स्वयं को भाग्यवान समझे जिन्हें माँ की सेवा का अवसर मिला है | यदि माँ को प्रसन्न रखा है तो ईश्वर आप के घर में ही है | आशीर्वादों की झरी लग जाएगी | एक बात और याद रखना जो आप कर रहे हैं अपने माँ - बाप के साथ , आप की संतान उसकी साक्षी है | वो सभी संस्कार आपके ही ग्रहण कर रहे हैं | रही माँ की बात वो तो प्यार का दरिया है | उसके जैसा न था , न है और न कभी हो पायेगा |
मदर्स डे पर विशेष भेंट इस्लाम में हुक़ूक़ुल ऐबाद की फ़ज़ीलत व अहमियत इंसानी मुआशरे में सबसे ज़्यादा अहम रुक्न ख़ानदान है और ख़ानदान में सबसे ज़्यादा अहमियत वालदैन की है। वालदैन के बाद उनसे मुताल्लिक़ अइज़्जा वा अक़रबा के हुक़ूक़ का दर्जा आता है डाक्टर मोहम्मद उमर फ़ारूक़ क़ुरैशी 1 जून, 2012 (उर्दू से तर्जुमा- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम) दुनिया के हर मज़हब व मिल्लत की तालीमात का ये मंशा रहा है कि इसके मानने वाले अमन व सलामती के साथ रहें ताकि इंसानी तरक़्क़ी के वसाइल को सही सिम्त में रख कर इंसानों की फ़लाहो बहबूद का काम यकसूई के साथ किया जाय। इस्लाम ने तमाम इंसानों के लिए ऐसे हुक़ूक़ का ताय्युन किया है जिनका अदा करना आसान है लेकिन उनकी अदायगी में ईसार व कुर्बानी ज़रूरी है। ये बात एक तरह का तर्बीयती निज़ाम है जिस पर अमल कर के एक इंसान ना सिर्फ ख़ुद ख़ुश रह सकता है बल्कि दूसरों के लिए भी बाइसे राहत बन सकता है। हुक़ूक़ की दो इक़्साम हैं । हुक़ूक़ुल्लाह और हुक़ूक़ुल ऐबाद। इस्लाम ने जिस क़दर ज़ोर हुक़ूक़ुल ऐबाद पर दिया है इससे ये अमर वाज़ेह हो जाता है कि इन हुक़ूक़ का कितना बुलंद मुक़ाम है और उनकी अ
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और हमने मनुष्य को उसके अपने माँ-बाप के मामले में ताकीद की है - उसकी माँ ने निढाल होकर उसे पेट में रखा और दो वर्ष उसके दूध छूटने में लगे - कि "मेरे प्रति कृतज्ञ हो और अपने माँ-बाप के प्रति भी। अंततः मेरी ही ओर आना है (14) किन्तु यदि वे तुझपर दबाव डाले कि तू किसी को मेरे साथ साझी ठहराए, जिसका तुझे ज्ञान नहीं, तो उसकी बात न मानना और दुनिया में उसके साथ भले तरीके से रहना। किन्तु अनुसरण उस व्यक्ति के मार्ग का करना जो मेरी ओर रुजू हो। फिर तुम सबको मेरी ही ओर पलटना है; फिर मैं तुम्हें बता दूँगा जो कुछ तुम करते रहे होगे।"
http://quranse.blogspot.com/2011/05/blog-post_9112.html
ना सुपारी निकली ना सरोता निकला '
माँ के बटुए में तो दुआओं का बजीफा निकला |
और में क्या कहूँ बस माँ तुझे सलाम ...