भारत के लोग चाहें तो अपने सिर पर गुलाबी रंग का बड़ा सा साफा बांधे यह कहते हुए शान से घूम सकते हैं कि वे एक महान संस्कृति के रक्षक हैं, पर संयुक्त राष्ट्र के डिपार्टमेंट ऑफ इकनॉमिक्स ऐंड सोशल अफेयर्स ने भारत और चीन को बेटियों के लिए दुनिया भर में सबसे खराब देश माना है। उसने 150 देशों में 40 बरसों के अध्ययन के आधार पर यह रिपोर्ट पेश की है। इसके मुताबिक यहां एक से पांच साल के बीच की उम्र करीब 75 फीसदी लड़कियां मौत के मुंह में चली जाती हैं।
पूरी दुनिया में बेटियों के साथ ऐसा और कहीं नहीं होता। ऐसा नहीं है कि यह समस्या पहले न रही हो, लेकिन आज के समाज में इसका स्तर हैरान करने वाला है। शिक्षा का स्तर बढ़ने से लड़के के मुकाबले लड़की को कमतर आंकने की प्रवृत्त जिस तरह से कम कम होनी चाहिए थी, वह संभव नहीं हो पाई। इसलिए यह देखना चाहिए कि आखिर हमारी सरकारी योजनाओं में खोट कहां है? पिछले तीन दशकों में यहां लिंगानुपात कम करने और बेटियों का जीवन स्तर सुधारने के लिए तरह-तरह की योजनाएं बनाई गईं हैं। उन्हें सही तरीके से लागू किया गया होता तो शायद यह हालत नहीं होती।
इसकी जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की ही नहीं, समाज की भी उतनी ही है। लेकिन दुखद यह है कि कालिदास के समय से बेटी को पराया धन मानने वाली प्रवृत्ति अब भी पूरी तरह से हमारे समाज में बदली नहीं है। समाज में जिस तरह से खान-पान, स्वास्थ्य और बर्ताव के मामले में बेटी को दूसरा दर्जा दिया जाता है, उससे यह जाहिर है कि इस पर काबू पाना आसान नहीं है। यह तभी संभव है जब हमारे दिमाग के सामंती जाले झड़ जाएं। इस दिशा में हिमाचल प्रदेश और झारखंड की सरकारों ने कुछ नई कोशिशें की हैं।
जहां हिमाचल में दो बेटियों के बाद स्थायी परिवार नियोजन उपाय कराने वाले सरकारी कर्मचारी को दोगुनी वेतन वृद्धि दी जाएगी, वहीं झारखंड में लड़कियों के लिए मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था की जा रही है। ये सराहनीय कदम हैं। लाड़ली योजना सहित अनेक ऐसी योजनाएं देश के विभिन्न हिस्सों में सरकारी स्तर पर चल रही हैं। लेकिन यू। एन. की इस रिपोर्ट के बाद अब यह देखना भी जरूरी है कि इन्हें लागू कराने के लिए कैसे उत्साहजनक माहौल बनाया जाए।
Source : http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/11715541.cms
पूरी दुनिया में बेटियों के साथ ऐसा और कहीं नहीं होता। ऐसा नहीं है कि यह समस्या पहले न रही हो, लेकिन आज के समाज में इसका स्तर हैरान करने वाला है। शिक्षा का स्तर बढ़ने से लड़के के मुकाबले लड़की को कमतर आंकने की प्रवृत्त जिस तरह से कम कम होनी चाहिए थी, वह संभव नहीं हो पाई। इसलिए यह देखना चाहिए कि आखिर हमारी सरकारी योजनाओं में खोट कहां है? पिछले तीन दशकों में यहां लिंगानुपात कम करने और बेटियों का जीवन स्तर सुधारने के लिए तरह-तरह की योजनाएं बनाई गईं हैं। उन्हें सही तरीके से लागू किया गया होता तो शायद यह हालत नहीं होती।
इसकी जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की ही नहीं, समाज की भी उतनी ही है। लेकिन दुखद यह है कि कालिदास के समय से बेटी को पराया धन मानने वाली प्रवृत्ति अब भी पूरी तरह से हमारे समाज में बदली नहीं है। समाज में जिस तरह से खान-पान, स्वास्थ्य और बर्ताव के मामले में बेटी को दूसरा दर्जा दिया जाता है, उससे यह जाहिर है कि इस पर काबू पाना आसान नहीं है। यह तभी संभव है जब हमारे दिमाग के सामंती जाले झड़ जाएं। इस दिशा में हिमाचल प्रदेश और झारखंड की सरकारों ने कुछ नई कोशिशें की हैं।
जहां हिमाचल में दो बेटियों के बाद स्थायी परिवार नियोजन उपाय कराने वाले सरकारी कर्मचारी को दोगुनी वेतन वृद्धि दी जाएगी, वहीं झारखंड में लड़कियों के लिए मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था की जा रही है। ये सराहनीय कदम हैं। लाड़ली योजना सहित अनेक ऐसी योजनाएं देश के विभिन्न हिस्सों में सरकारी स्तर पर चल रही हैं। लेकिन यू। एन. की इस रिपोर्ट के बाद अब यह देखना भी जरूरी है कि इन्हें लागू कराने के लिए कैसे उत्साहजनक माहौल बनाया जाए।
Source : http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/11715541.cms
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