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माँ

रात की अलस उनींदी आँखों में
एक स्वप्न सा चुभ गया है ,
कहीं कोई बेहद नर्म बेहद नाज़ुक ख़याल
चीख कर रोया होगा ।

सुबह के निष्कलुष ज्योतिर्मय आलोक में
अचानक कालिमा घिर आयी है ,
कहीं कोई चहचहाता कुलाँचे भरता मन
सहम कर अवसाद के अँधेरे में घिर गया होगा ।

दिन के प्रखर प्रकाश को परास्त कर
मटियाली धूसर आँधी घिर आई है ,
कहीं किसी उत्साह से छलछलाते हृदय पर
कुण्ठा और हताशा का क़हर बरपा होगा ।

शिथिल शाम की अवश छलकती आँखों में
आँसू का सैलाब उमड़ता जाता है ,
कहीं किसी बेहाल भटकते बालक को
माँ के आँचल की छाँव अवश्य मिली होगी ।

साधना वैद

Comments

माँ हर तपिश से बचा लेती है ..बहुत अच्छी प्रस्तुति ...
माँ का आँचल ऐसा ही है !
vandana gupta said…
्बहुत सुन्दर भाव्।
कहीं किसी बेहाल भटकते बालक को
माँ के आँचल की छाँव अवश्य मिली होगी ।

काश कि कोई भी मां के आंचल की छांव से महरूम न हो.....
बहुत सुंदर रचना....
DR. ANWER JAMAL said…
Nice post.

दुनिया की रस्मों से अनजान
मैं हूँ पागल , मैं हूँ नादान .

बंदिशें इस कद्र भारी पड़ी
दिल में दफन हो गए सब अरमान.

कर्जदार हूँ , बकाया हैं मुझ पर
कुछ इसके , कुछ उसके अहसान .

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