यह सावन भी बीत गया माँ ,
ना आम, ना अमलतास,
ना गुलमोहर, ना नीम,
ना बरगद, ना पीपल
किसी पेड़ की डालियों पे
झूले नहीं पड़े !
ना चौमासा और बिरहा
की तान सुनाई दी
ना कजरी, मल्हार के सुरीले बोलों ने
कानों में रस घोला !
ना मोहल्ले पड़ोस की
लड़कियों के शोर ने
झूला झूलते हुए
आसमान गुँजाया ,
ना राखी बाँधने के बाद
नेग शगुन को लेकर
झूठ-मूठ की रूठा रूठी और
मान मनौव्वल ही हुई !
जबसे तुम गयी हो माँ
ना किसीने जीवन के विविध रंगों
से मेरी लहरिये वाली चुनरी रंगी ,
ना उसमें हर्ष और उल्लास का
सुनहरी, रुपहली गोटा लगाया !
ना मेरी हथेलियों पर मेंहदी से
संस्कार और सीख के सुन्दर बूटे काढ़े ,
ना किसीने मेंहदी रची मेरी
लाल लाल हथेलियों को
अपने होंठों से लगा
बार-बार प्यार से चूमा !
ना किसी मनिहारिन ने
कोमलता से मेरी हथेलियों को दबा
मेरी कलाइयों पर
रंगबिरंगी चूड़ियाँ चढ़ाईं ,
ना किसीने ढेरों दुआएं देकर
आशीष की चमकीली लाल हरी
चार चार चूड़ियाँ यूँ ही
बिन मोल मेरे हाथों में पहनाईं !
अब तो ना अंदरसे और पूए
मन को भाते हैं ,
ना सिंवई और घेवर में
कोई स्वाद आता है
अब तो बस जैसे
त्यौहार मनाने की रीत को ही
जैसे तैसे निभाया जाता है !
सब कुछ कितना बदल गया है ना माँ
कितना नकली, कितना सतही ,
कितना बनावटी, कितना दिखावटी ,
जैसे सब कुछ यंत्रवत
खुद ब खुद होता चला जाता है ,
पर जहाँ मन इस सबसे बहुत दूर
असम्पृक्त, अलग, छिटका हुआ पड़ा हो
वहाँ भला किसका मन रम पाता है !
साधना वैद
Comments
सादर अभिनन्दन ||
सार्थक अभिव्यक्ति !
अच्छा लगा मेरे ब्लाग पर अवश्य आइये मैने भी
एक छोटी सी कोशिश की है इसे समझने की।
http://mhare-anubhav.blogspot.com/
Kabhi apne shabdon se hame bhi apni kripa se anugrahit karen.
हमसे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जुड़े लेखकों का संकलन छापने के लिए एक प्रकाशन गृह सहर्ष सहमत है.
स्वागत... खुशी होगी इसमें आपका सार्थक साथ पाकर.
आइये मिलकर अपने शब्दों को आकार दें
सार्थक अभिव्यक्ति !