मिसालः‘आरूषि-हेमराज मर्डर केस’
आज दिनांक 26 नवंबर 2013 को विशेष सीबीाआई कोर्ट ने ‘आरूषि-हेमराज मर्डर केस’ में आरूषि के मां-बाप को ही उम्रक़ैद की सज़ा सुना दी है। फ़जऱ्ी एफ़आईआर दर्ज कराने के लिए डा. राजेश तलवार को एक साल की सज़ा और भुगतनी होगी। उन पर 17 हज़ार रूपये का और उनकी पत्नी डा. नुपुर तलवार पर 15 हज़ार रूपये का जुर्माना भी लगाया गया है। दोनों को ग़ाजि़याबाद की डासना जेल भेज दिया गया है। डा. नुपुर तलवार इससे पहले सन 2012 में जब इसी डासना जेल में बन्द थीं तो उन्होंने जेल प्रशासन से ‘द स्टोरी आॅफ़ एन अनफ़ार्चुनेट मदर’ शीर्षक से एक नाॅवेल लिखने की इजाज़त मांगी थी, जो उन्हें मिल गई थी। शायद अब वह इस नाॅवेल पर फिर से काम शुरू कर दें। जेल में दाखि़ले के वक्त उनके साथ 3 अंग्रेज़ी नाॅवेल देखे गए हैं।
आरूषि का बाप राकेश तलवार और मां नुपुर तलवार, दोनों ही पेशे से डाॅक्टर हैं। दोनों ने आरूषि और हेमराज के गले को सर्जिकल ब्लेड से काटा और आरूषि के गुप्तांग की सफ़ाई की। क्या डा. राजेश तलवार ने कभी सोचा था कि उन्हें अपनी मेडिकल की पढ़ाई का इस्तेमाल अपनी बेटी का गला काटने में करना पड़ेगा?
डा. नुपुर तलवार ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि उसकी जि़न्दगी में कोई ऐसी मनहूस घड़ी आएगी जबकि उसकी पेशेवर सलाहियत उसी की बेटी का गुप्तांग धोने के काम आएगी। दोनों डाक्टर पति पत्नी अपनी बेटी आरूषि से बहुत प्यार करते थे। सीबीआई का भी कहना है कि उन्होंने आरूषि की हत्या इरादतन नहीं की।
डा. राकेश तलवार ने 15 व 16 मई 2008 की दरम्यानी रात को अपने नेपाली नौकर हेमराज को आरूषि के कमरे में ऐसी हालत में देख लिया। जिसे देखकर वह अपना आपा खो बैठे और उस पर एक गोल्फ़ स्टिक से हमला कर दिया। ऐश का सामान तैश में इस्तेमाल किया तो नतीजा यह हुआ कि पहला वार हेमराज के सिर पर लगा लेकिन दूसरा वार उनके हाथ से आरूषि के माथे पर जा लगा और वह मर गई। उसकी मौत को छिपाने के लिए डा. राजेश ने बेटी का गला एक सर्जिकल ब्लेड से काट दिया। गला कटने पर उसकी धमनी से तेज़ी के साथ ख़ून नहीं निकला। यह पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से साबित है।
हेमराज जि़न्दा रहता तो वह पुलिस को बता सकता था कि आरूषि को उसके बाप ने ही मारा है। सज़ा से बचने के लिए डा. राजेश को हेमराज को भी मारना पड़ा। उसका गला भी उसी सर्जिकल ब्लेड से काट दिया गया। दोनों ने उसकी लाश को छत पर डाल दिया और दरवाज़े पर ताला लगा दिया। दिन निकला तो डा. राजेश तलवार ने अपने नौकर हेमराज को आरूषि के क़त्ल में नामज़द करते हुए पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दी। पुलिस ने सीढि़यों पर ख़ून के निशान देखकर उनसे दरवाज़े की चाभी मांगी तो उन्होंने इनकार कर दिया। पुलिस को ताला तोड़ना पड़ा और तब नौकर की लाश उनकी छत पर ही मिल गई। डा. राजेश तलवार ने अपने नौकर की लाश को पहचानने से ही इन्कार कर दिया।
आरूषि का पोस्टमार्टम करने वाले डा. दोहरे पर राकेश तलवार ने भी दबाव डाला कि वह अपनी रिपोर्ट में यौन संबंध की तस्दीक़ न करे। उसके गुप्तांग को पानी से धोने की बात भी सामने आई है। यह काम डा. नुपुर तलवार ने किया था। डा. नुपुर एक अच्छी मां भले ही न बन पाईं लेकिन वह एक अच्छी पत्नी ज़रूर साबित हुईं। वह हर क़दम पर अपने पति का साथ देती रहीं। अगर वह थोड़ा सा सजग रहतीं तो वह एक अच्छी मां भी साबित सकती थीं।
देखने में यह घटना महज़ एक मनहूस हादसा लगती है लेकिन कोई भी हादसा बे-सबब नहीं होता। हक़ीक़त यह है कि इस घटना के असबाब (कारण) मां-बाप ने ख़ुद ही जमा किए हैं। ये असबाब करोड़ों परिवारों में मौजूद हैं। उन परिवारों में भी ऐसी दुर्घटना संभव है।
क्या हैं वे असबाब ?, वक्त का तक़ाज़ा है कि इस पर ग़ौरो-फि़क्र किया जाए।
सबसे पहला और सबसे अहम सबब है, माॅडर्न सोसायटी में मां के रोल को बदल देना। मां को घर से हटाने का मतलब है बच्चों को बर्बाद कर देना।
मां-बाप औलाद को मिलकर पालते हैं। बाप कमाता है और मां पकाकर खिलाती है। आज भी ज़्यादातर हिन्तुस्तानी घरों में यही होता है। पहले ज़रूरत और मजबूरी में ही औरत घर से बाहर कमाने के लिए निकलती थी। अगर पहले बाप के काम को काम माना जाता था तो मां का काम, काम से ज़्यादा क़ुरबानी माना जाता था।
माॅडर्न लाइफ़ स्टाइल ने उन औरतों को वर्किंग-वूमेन माना है जो सीधे तौर पर रूपया कमाने का कोई काम कर रही हैं। घर पर बच्चों की देखभाल का बहुत बड़ा काम अंजाम देने वाली औरत को हाउस-वाइफ़ यानि घरेलू औरत कह दिया जाता है। मानो वह कोई काम ही न करती हो या उसके काम की कोई ख़ास अहमियत ही न हो। इस तरह बेशक पैसा तो डबल आ जाता है लेकिन बच्चा अधूरा रह जाता है। वह मां के प्यार, उसकी निगरानी और उसकी तरबियत (अच्छे अख़लाक़ और संस्कार) से महरूम ही रह जाता है।
मां बाप इस कमी की भरपाई के लिए घर में नौकर रख लेते हैं लेकिन कोई नौकर मां का बदल नहीं हो सकता। बच्चा अपना अकेलापन टी. वी. और इन्टरनेट के सहारे दूर करना चाहता है तो पोर्न फि़ल्में उसके मन में बेहयाई और जरायम के बीज बो देती हैं। नई उम्र के बच्चे जो देखते हैं, उसे आज़माने की कोशिश करते हैं। इस तरह मां की ग़ैर-मौजूदगी बच्चों से उनका बचपन छीन रही है।
दूसरा सबब पैसे की हवस है। असल में इसी हवस की ख़ातिर मां के रोल को बदला गया है। जि़न्दगी की ज़रूरतें पूरी होने के बाद भी लोग अपनी दौलत के ढेर को ज़्यादा से ज़्यादा बड़ा कर लेना चाहते हैं।
तीसरा सबब जहालत है। जिसे हिन्दी में अज्ञान कहा जाता है। अज्ञान गहरा अर्थ रखता है। शिक्षित लोग भी अज्ञानी हो सकते हैं। आरूषि के मां-बाप डाक्टर होने के बावुजूद भी जाहिल अर्थात अज्ञानी ही रह गए।
अकेली कमसिन लड़की के पास एक पुख्ता जवान आदमी को छोड़ने के लिए न तो धर्म कहता है और न ही मनोविज्ञान। उन्होंने न धर्म की मानी और न ही साइंस की। इसी का नाम जहालत है। शराब पीना जहालत है। पुलिस ने डा. राकेश तलवार की डायनिंग टेबल से शराब की बोतल भी बरामद की है। आरूषि के मर्डर के बाद शराब भी पी गई थी। हेमराज भी शराबी रहा हो तो कोई ताज्जुब नहीं। बाप घर में बैठकर शराब पिए और बच्चों से चरित्रवान बनने की उम्मीद करे। इसे भी जहालत में गिना जाएगा। मां-बाप सिर्फ़ रूपया कमाने की मशीन ही नहीं होते बल्कि वे अपने अमल से अपने बच्चों के सामने एक आदर्श भी पेश करते हैं।
एजुकेशन का मक़सद अगर रूपया और रूतबा कमाना है तो डा. राकेश तलवार और नुपुर तलवार ने यह पा लिया है लेकिन आज उनके पास उनकी बेटी आरूषि नहीं है और वे ख़ुद जेल में हैं तो ये दोनों चीज़ें उनके लिए बेकार हैं।
फिर एजुकेशन का मक़सद क्या है?
एजुकेशन का मक़सद न जानना चैथा सबब है। लोग एजुकेटिड हैं लेकिन वे एजुकेशन का मक़सद नहीं जानते। यही वजह है कि एजुकेशन के साथ साथ क्राइम का ग्राफ़ भी बढ़ रहा है और बड़े क्राइम पढ़े लिखे लोग ही कर रहे हैं।
पांचवा सबब है जि़न्दगी के मक़सद को न जानना। यह पांचवा सबब दरअसल बुनियादी सबब है। जि़न्दगी को आप किस नज़र से देखते हैं, यह बात आपके जीने के तरीक़े को ही बदल देती है। जो लोग जीने का मक़सद और जीने का सही तरीक़ा जानते हैं। वे अपने घर में जवान अजनबी आदमी तो क्या कुत्ता तक घुसने नहीं देते।
लोग जी रहे हैं लेकिन वे नहीं जानते कि जि़न्दगी का मक़सद क्या है?
माॅडर्न सोसायटी ने अपनी जहालत की वजह से मां के रोल के साथ जो छेड़छाड़ की है, उसी का एक भयानक नतीजा है ‘आरूषि-हेमराज मर्डर केस’। इस हादसे के आईने में हम सब अपना जायज़ा ले सकते हैं कि हमारे घर में तो इन असबाब में से कोई मौजूद नहीं है?
बच्चों को पालना है तो अच्छा मां-बाप बनना सीखना होगा। जि़म्मेदार मां-बाप बनने की बातें स्कूल-काॅलेज के सिलेबस में रखी ही नहीं हैं। इसके लिए अपने अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे मां-बाप से ही तालीम लेनी होगी या फिर देखिए उन मां-बापों को, जिन्होंने अपने बच्चों को बिना किसी स्कूल-काॅलेज के ही इतना अच्छा बना दिया कि आज तक दुनिया उनके नक्शे-क़दम पर चलकर कामयाबी हासिल कर रही है। मां-बाप पर कल भी लाजि़म था और उन पर आज भी लाजि़म है कि वे पहले ख़ुद सही और ग़लत की तमीज़ सीखें और फिर अपने बच्चों को सिखाएं।
इसी के साथ ख़ुदग़जऱ्ी से भी निकलना होगा। सिर्फ़ अपने भले के बजाय दूसरों की भलाई के बारे में भी सोचना होगा। सबको सही-ग़लत की तमीज़ देनी होगी। कोई जवान आदमी पैसे और रोज़गार की कमी की वजह से अविवाहित न रहे और न ही किसी विवाहित मर्द को पैसे की ख़ातिर अपने बीवी-बच्चों से दूर जाने के लिए मजबूर होना पड़े। इसकी व्यवस्था करनी होगी। अगर कमज़ोर वर्ग की बुनियादी ज़रूरतें पूरी न हुई तो आप पर किसी भी तरफ़ से मुसीबत का हमला हो सकता है।
हमारी सुरक्षा हमारे विचार पर निर्भर है। हमारी ख़ुशियां हमारे नज़रिए की देन हैं।
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