प्यारी बेटी अनम की याद में, जो जन्नत का फूल बन गई है.
अनम हमारी बेटी का नाम है, जो कि 24 जून 2010 को पैदा हुई और सिर्फ़ 28 दिन हमारे पास रहकर 22 जुलाई 2010 को इस दुनिया से चली गई। वह ‘स्पाइना बायफ़िडा‘ की बीमारी से जूझ रही थी। उसकी बीमारी का पता डाक्टर मीनाक्षी राना ने उसकी पैदाइश से पहले ही लगा लिया था। अनम, जब 7 माह का एक भ्रूण ही थी, तभी डाक्टर ने यह सलाह दी थी कि इसे टर्मिनेट करा दीजिए क्योंकि इसकी रीढ़ की हड्डी ठीक नहीं है। इस भ्रूण की कमर पर एक ज़ख्म है। इसका असर इसके पैरों पर आएगा और इसके सिर की हड्डियों में भी कमी है।
डाक्टर मीनाक्षी राना की जगह कोई दूसरा डाक्टर होता तो वह भी यही सलाह देता क्योंकि मेडिकल वर्ल्ड के माहिरों ने यही सही ठहराया है।
एक सवाल तो यही है कि सही और ग़लत ठहराने का अधिकार उन्हें किसने दिया ?
दूसरा सवाल यह है कि क्या बीमार भ्रूणों को टर्मिनेट कर देने का उनका फ़ैसला ठीक होता है ?
पैदा होने के बाद जो लोग बीमार और ज़ख्मी हो जाते हैं या जिंदगी भर के लिए विकलांग हो जाते हैं, क्या उन्हें दुनिया से ‘टर्मिनेट‘ कर दिया जाता है ?
अगर एक मुकम्मल इंसान अपाहिज होने के बावजूद इस दुनिया में जी सकता है तो फिर एक मासूम भ्रूण इस दुनिया में क्यों नहीं आ सकता ?
हमने डाक्टर से पूछा कि बच्चा ज़िंदा तो है न ?
उन्होंने कहा कि हां !
तब हमने अपनी मां और अपनी पत्नी से बातचीत की। उनमें से कोई भी भ्रूण हत्या के लिए तैयार न हुआ। इस सिलसिले में इसलामी व्यवस्था जानने के लिए हमने एक बड़े इसलामी विद्वान से सवाल किया तो उन्होंने भी यही कहा कि भ्रूण को क़त्ल करना ग़लत है, उसे पैदा होने दीजिए।
डाक्टर के आग्रह के बावजूद हमने उनकी सलाह नहीं मानी और अनम पैदा हुई। अनम का हाल ठीक वही था जैसा कि डाक्टर ने हमें बताया था। वह एक लड़की है, इसका पता हमें उसकी पैदाईश के बाद ही चला। उसने अपनी बीमारी से 28 दिन तक कड़ा संघर्ष किया। इस दौरान वह बीमारी की वजह से कभी रोई नहीं और उसकी मां उसकी देखभाल की वजह से कभी ठीक से सोई नहीं। जब उसके बड़े से और भयानक ज़ख्म की पट्टी की जाती थी। वह तब भी नहीं रोती थी। हर वक्त वह हमारे हाथों में ही रहती थी। हम कोई और काम करने के लायक़ ही नहीं बचे थे। हल्के हल्के वह ठीक होने लगी। उसकी कमर का ज़ख्म भरने लगा। हमें उम्मीद हुई कि एक दिन वह अपनी छोटी छोटी सी टांगे भी चलाने लगेगी।
...लेकिन एक दिन सुबह बच्चों को स्कूल भेजकर जब उसकी मां ने उसे पालने से बाहर निकाला तो उसका बदन बेजान था। उसकी मां रोती हुई बदहवास सी हालत में मेरे पास आई। मैंने भी अनम को देखा और फिर दूसरे डाक्टर ने भी देखा। अनम अपनी उम्र पूरी करके जा चुकी थी।
अनम हमारी तीसरी बेटी थी। वह हमारे लिए एक बेटी थी लेकिन एक ख़ास बेटी। वह हमारी गोद में आई और उसने बिना बोले ही हमें बता दिया कि यह दुनिया बीमार भ्रूणों के हक़ में कितनी ज़ालिम है ?
उच्च शिक्षा भी लोगों को इंसानियत के गुण नहीं दे पाई है। करोड़ों बीमार भ्रूण डाक्टरों की सलाह की वजह से अपनी मां के पेट में ही क़त्ल कर दिए जाते हैं।
कन्या भ्रूण हत्या को समाज में ग़लत माना जाता है और उसके खि़लाफ़ आवाज़ भी उठाई जाती है लेकिन बीमार भ्रूण इतने ख़ुशनसीब नहीं हैं। उनके हक़ में कोई आवाज़ नहीं उठाता। बीमार भ्रूण के हक़ में जब हमने पहली बार आवाज़ उठाई तो बुद्धिजीवी ब्लॉगर्स ने भी यही कहा कि हमें डाक्टर की सलाह मान लेनी चाहिए।
कन्या भ्रूण हत्या के खि़लाफ़ दुनिया भर में आवाज़ उठाई जा रही है तो यहां भी लोग आवाज़ उठा रहे हैं। यह एक चलन की पैरवी है, न कि कोई समझदारी भरा फ़ैसला। अगर यह आवाज़ समझदारी के साथ उठाई जाती तो यह हरेक भ्रूण की हत्या रोकने के लिए उठाई जाती। बीमार भ्रूणों की हत्या पर ख़ामोशी एक जुर्म है। हमारी ख़ामोशी की वजह से ही उन्हें मार दिया जाता है।
अनम ने हमें बताया है कि हर साल न जाने कितने करोड़ ऐसे अनाम मासूम होते हैं, जिनके क़त्ल में हमारी ख़ामोश हिस्सेदारी है, जिन्हें हमने कभी देखा नहीं बल्कि जिन्हें हम जानते तक नहीं हैं।
अनम हमारे दिलों में आज भी मौजूद है। हम भी उसकी मौजूदगी को बनाए रखना चाहते हैं। अनम की याद के बहाने हम उस जैसे करोड़ों मासूमों को याद कर पाते हैं। हो सकता है कि कभी लोगों में समझदारी जागे और वे इनके हक़ में भी कभी आवाज़ बुलंद करें।
बीमार भ्रूणों की रक्षा के लिए आप यह पोस्ट देखें और इस आवाज़ को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करें-
अनम हमारी बेटी का नाम है, जो कि 24 जून 2010 को पैदा हुई और सिर्फ़ 28 दिन हमारे पास रहकर 22 जुलाई 2010 को इस दुनिया से चली गई। वह ‘स्पाइना बायफ़िडा‘ की बीमारी से जूझ रही थी। उसकी बीमारी का पता डाक्टर मीनाक्षी राना ने उसकी पैदाइश से पहले ही लगा लिया था। अनम, जब 7 माह का एक भ्रूण ही थी, तभी डाक्टर ने यह सलाह दी थी कि इसे टर्मिनेट करा दीजिए क्योंकि इसकी रीढ़ की हड्डी ठीक नहीं है। इस भ्रूण की कमर पर एक ज़ख्म है। इसका असर इसके पैरों पर आएगा और इसके सिर की हड्डियों में भी कमी है।
डाक्टर मीनाक्षी राना की जगह कोई दूसरा डाक्टर होता तो वह भी यही सलाह देता क्योंकि मेडिकल वर्ल्ड के माहिरों ने यही सही ठहराया है।
एक सवाल तो यही है कि सही और ग़लत ठहराने का अधिकार उन्हें किसने दिया ?
दूसरा सवाल यह है कि क्या बीमार भ्रूणों को टर्मिनेट कर देने का उनका फ़ैसला ठीक होता है ?
पैदा होने के बाद जो लोग बीमार और ज़ख्मी हो जाते हैं या जिंदगी भर के लिए विकलांग हो जाते हैं, क्या उन्हें दुनिया से ‘टर्मिनेट‘ कर दिया जाता है ?
अगर एक मुकम्मल इंसान अपाहिज होने के बावजूद इस दुनिया में जी सकता है तो फिर एक मासूम भ्रूण इस दुनिया में क्यों नहीं आ सकता ?
हमने डाक्टर से पूछा कि बच्चा ज़िंदा तो है न ?
उन्होंने कहा कि हां !
तब हमने अपनी मां और अपनी पत्नी से बातचीत की। उनमें से कोई भी भ्रूण हत्या के लिए तैयार न हुआ। इस सिलसिले में इसलामी व्यवस्था जानने के लिए हमने एक बड़े इसलामी विद्वान से सवाल किया तो उन्होंने भी यही कहा कि भ्रूण को क़त्ल करना ग़लत है, उसे पैदा होने दीजिए।
डाक्टर के आग्रह के बावजूद हमने उनकी सलाह नहीं मानी और अनम पैदा हुई। अनम का हाल ठीक वही था जैसा कि डाक्टर ने हमें बताया था। वह एक लड़की है, इसका पता हमें उसकी पैदाईश के बाद ही चला। उसने अपनी बीमारी से 28 दिन तक कड़ा संघर्ष किया। इस दौरान वह बीमारी की वजह से कभी रोई नहीं और उसकी मां उसकी देखभाल की वजह से कभी ठीक से सोई नहीं। जब उसके बड़े से और भयानक ज़ख्म की पट्टी की जाती थी। वह तब भी नहीं रोती थी। हर वक्त वह हमारे हाथों में ही रहती थी। हम कोई और काम करने के लायक़ ही नहीं बचे थे। हल्के हल्के वह ठीक होने लगी। उसकी कमर का ज़ख्म भरने लगा। हमें उम्मीद हुई कि एक दिन वह अपनी छोटी छोटी सी टांगे भी चलाने लगेगी।
...लेकिन एक दिन सुबह बच्चों को स्कूल भेजकर जब उसकी मां ने उसे पालने से बाहर निकाला तो उसका बदन बेजान था। उसकी मां रोती हुई बदहवास सी हालत में मेरे पास आई। मैंने भी अनम को देखा और फिर दूसरे डाक्टर ने भी देखा। अनम अपनी उम्र पूरी करके जा चुकी थी।
अनम हमारी तीसरी बेटी थी। वह हमारे लिए एक बेटी थी लेकिन एक ख़ास बेटी। वह हमारी गोद में आई और उसने बिना बोले ही हमें बता दिया कि यह दुनिया बीमार भ्रूणों के हक़ में कितनी ज़ालिम है ?
उच्च शिक्षा भी लोगों को इंसानियत के गुण नहीं दे पाई है। करोड़ों बीमार भ्रूण डाक्टरों की सलाह की वजह से अपनी मां के पेट में ही क़त्ल कर दिए जाते हैं।
कन्या भ्रूण हत्या को समाज में ग़लत माना जाता है और उसके खि़लाफ़ आवाज़ भी उठाई जाती है लेकिन बीमार भ्रूण इतने ख़ुशनसीब नहीं हैं। उनके हक़ में कोई आवाज़ नहीं उठाता। बीमार भ्रूण के हक़ में जब हमने पहली बार आवाज़ उठाई तो बुद्धिजीवी ब्लॉगर्स ने भी यही कहा कि हमें डाक्टर की सलाह मान लेनी चाहिए।
कन्या भ्रूण हत्या के खि़लाफ़ दुनिया भर में आवाज़ उठाई जा रही है तो यहां भी लोग आवाज़ उठा रहे हैं। यह एक चलन की पैरवी है, न कि कोई समझदारी भरा फ़ैसला। अगर यह आवाज़ समझदारी के साथ उठाई जाती तो यह हरेक भ्रूण की हत्या रोकने के लिए उठाई जाती। बीमार भ्रूणों की हत्या पर ख़ामोशी एक जुर्म है। हमारी ख़ामोशी की वजह से ही उन्हें मार दिया जाता है।
अनम ने हमें बताया है कि हर साल न जाने कितने करोड़ ऐसे अनाम मासूम होते हैं, जिनके क़त्ल में हमारी ख़ामोश हिस्सेदारी है, जिन्हें हमने कभी देखा नहीं बल्कि जिन्हें हम जानते तक नहीं हैं।
अनम हमारे दिलों में आज भी मौजूद है। हम भी उसकी मौजूदगी को बनाए रखना चाहते हैं। अनम की याद के बहाने हम उस जैसे करोड़ों मासूमों को याद कर पाते हैं। हो सकता है कि कभी लोगों में समझदारी जागे और वे इनके हक़ में भी कभी आवाज़ बुलंद करें।
बीमार भ्रूणों की रक्षा के लिए आप यह पोस्ट देखें और इस आवाज़ को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करें-
Comments
परवरदिगार हम सबको आफ़ियत के साथ रखे और नेक कामों की तौफ़ीक़ दे, आमीन !
इस रचना का एक हिस्सा जो मुझे ईमेल से मिला था, उसे अपने ब्लॉग सोने पे सुहागा पर लगा दिया है।
लिंक-
http://drayazahmad.blogspot.in/2012/07/blog-post_22.html
अनम के साथ नहीं हुआ अन्याय !
Kai philospher duniaya ko paheli bata kar aur paheli hi bana rakh kar chale gaye..ismein kya shak ab reh gaya ki yeh duniya to Allah ki jannat mein dakhil hone ka imtehaan bhar hai.. Allah ne apane naimaton ko dene ke liye ummeedwar chunane ke liye yeh duniya banayee..yeh hi is duniya naam ki paheli ka hal hai...