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यादें :चर्चित लेखिका-कमल कुमार

मैं मां की पसंद नहीं थी। एक तो मेरे रूप-रंग को लेकर मां की चिंता फिर मैं दूसरों जैसी उठ जाओ उठ गई। बैठ जाओ बैठ गई। घूम जाओ, घूम गई वाली लड़कियों में से नहीं थी। मां चाहती थी कि मैं अच्छी लड़कियों की तरह बनूं। खाना बनान सीखूं , सिलाई-बुनाई करूं, घर के कामों में हाथ बंटाऊं और जो कोई जैसा कहे वैसा करूं। मुझे इन कामों का कतई शौक नहीं था। घर में बहुत सारे नौकर-चाकर तो थे पर तो भी मां मुझे कामों में लगाना चाहती थी। मां को मेरा भागना-दौडऩा, कूदना-फांदना, हंसना-खेलना या किसी कोने में किनारे बैठ कर दिन भर कहानियों की किताबें पढऩा अखरता था। मां किसी ने किसी बात को लेकर डांटती-फटकारती इसलिए मैं अपने पिता के अधिक नजदीक थी। शाम को उनके साथ क्लब जाना बैडमिंटन खेलना। सबके साथ बोलना-हंसना और मौज-मस्ती करना। मां इससे चिढ़ती थी। पिताजी से कहती आप इस लडक़ी को बिगाड़ रहे हो। आगे जाके इसका क्या होगा। पिता हंस कर कहते- पढ़-लिख जाएगी सब ठीक हो जाएगा। पिताजी का ट्रांसफर अलवर में हो गया था। मेरा दाखिला स्कूल में नहीं हो सका। मुझे पांच-छह महीने घर में ही रहना पड़ा था। नीचे बैंक का दफ्तर था और ऊपर में मैनेजर का आवास था। वह बहुत बड़ा पुराना और रहस्यात्मक सा घर था। मुझे अच्छा नहीं लगता था। सुबह भाई-बहन स्कूल-कालेज चले जाते थे और मैं घर में भटकती रहती। फिर कभी वहां से निकल कर दो फर्लांग पर राजा का पुराना महल था वहां पहुंच जाती। वहां बहुत से टूरिस्ट आते थे। गाइड उनको बताता- दीवारों पर लगी पेंटिग्स को दिखाकर या मूर्तियों के पास जाकर तो कभी खंभों पर टिके बड़े-बड़े हाल की ओर इशारा करके उन्हें बताता वहां पहले क्या होता था। मुझे गाइड का कहा सुनना बंद हो जाता मैं राजा के महल में बहुत सारी रानियों के साथ तो कभी राजा की सेना के बीच हाथी-घोड़ों को खड़ी देखती। अचानक कोई मुझे रोक कर पूछता- तुम किसके साथ हो बच्ची? मैं? अपने साथ। और आगे बढ़ जाती। एक लंबा हाल और बरामदे के बाद खुले में आ जाती, जहां से औरतों को सिर पर लकडिय़ों और और घास के ..., चरवाहों को गायें और बकरियों के झुंड के पीछे जंगल से लौटते हुए देखती। शाम ढलती तो वहां का चौकीदार हडक़ा देता, घर जाओ बच्ची यहां रात को भेडिय़ा आता है। तुम्हें कुछ नहीं कहता? वह तुम्हारा दोस्त है क्या? चौकीदार मेरी तरफ देखता, मैं वहां से भाग कर घर आ जाती, मां से डांट खाती। मैंने उस बहुत सारे कमरों वाले घर में कोने का एक कमरा ले लिया था, तब टीवी नहीं था। दस साढ़े दस बजे तक घर में सब सो जाते। मैं अपने कमरें में देर रात तक किताबें पढ़ती, कविताएं लिखती या रेडियो सुनती। हमारे घर में कोई परिचित गेस्ट रूम में ठहरा था। वह सुबह जाकर शाम को लौटता, हम सबके साथ खाना खाता और हम अपने-अपने कमरों में चले जाते। उस दिन मैं सोने लगी तो अचानक देखा, वह मेरे कमरे में खड़ा है। मैंने सहज भाव से पूछा, कुछ चाहिए अंकल जी। वह आगे बढ़ा था,उसने एक में मेरे कंधों को और दूसरे में घुटने पर डाल कर मुझे पलंग पर लिटा दिया था। मैंने तेजी से हाथ-पैर चलाए थे और खुले दरवाजे से बाहर भागी थी। मम्मा और मम्मा, मुझे... मां को झकझोरा था। चैन नहीं लेनी देती। सारे भाई-बहन सोए हुए हैं, इसको डर लग रहा है। जा सो जा जाके। तभी मेरी अम्मा की आवाज आई-आ जा बेटी इधर आ जा, खिसक कर अम्मा ने मेरे लिए जगह बनाई। मैं उसके पास सोई थी। अम्मा ने पूछा था- क्या हुआ बेटी? मैंने बताया- अम्मा यह अंकल मुझे अच्छे नहीं लगते। अम्मा की पैनी नजर भांप गई थी। सुबह ही नाश्ते के बाद अम्मा ने उससे कहा था, बेटा अपना इंतजाम दूसरी जगह कर ले। हमारे यहां मेहमान आने वाले हैं। वह शाम को अपना सामान उठा कर चला गया था। मां और पिताजी ने बुरा माना था, पर अम्मा ने कुछ नहीं कहा था। बड़ी होती लडक़ी के साथ मां का जो रिश्ता बनना चाहिए था, बना ही नहीं था। मैं ब़ड़़ी हो गई थी। एम.ए कर चुकी थी। कालेज में पढ़ा रही थी। पिताजी का ट्रांसफर तब कानपुर में हो चुका था। सभी भाई-बहन बाहर थे, मेरी दो बहनें हास्टल में थीं। बड़ी की शादी हो चुकी थी। दोनों बड़े भाई नौकरी पर बाहर थे। मैं ही मम्मा और पिताजी के पास थी। मेरी कोई सहेली नहीं थी। हम तब नए-नए ही आए थे। मैं मम्मा को कहती चल मम्मा आज फिल्म देखने चलते हैं। पर तेरे पिताजी का खाना....। टिफिन लगा देती, चपरासी आएगा, बहादुर दे देगा। हम दोपहर का शो देखने जाएंगे। मम्मा थोड़ा हिचकिचाई। डैडी अंग्रेजी फिल्म देखते थे। मम्मा या तो जाती ही नहीं थी या जाती थी भी तो कोरी ही लौट आती। उन्हें हिंदी फिल्में पसंद थी। हमने रिक्शा लिया गाड़ी नहीं मंगवाई थी। गर्मी का महीना था। धूल भरी आंधी। रिक्शावाला आगे जोर लगाए और आंधी पीछे धकेले। मम्मा फिर परेशान, तुम कहना नहीं मानती। देख यह कोई मौसम है घर से बाहर आने का। इस गर्मी लू में। हम पहुंच गए मम्मा। फिल्म थी हम दो। थोड़ी देर से पहुंचे थे। फिल्म शुरू हो चुकी थी। हम परांठा-सब्जी पर्स में डाल कर ले गए थे। इंटरवल में हमने खाई थी। मैं कोकाकोला लाई थी। हम फिल्म के बाहर आए थे। मम्मा खुश थी। उसने कहा था- फिल्म तो बहुत अच्छी थी। बस फिर हमारा दूसरे-तीसरे दिन ही फिल्म का प्रोग्राम बनता। खाना पैक करके ले जाते। कभी-कभी मम्मा को जबरदस्ती बाहर से लेकर खिलाती। फिल्म के बाद हम मार्केट जाते। शाम को घूमते। मम्मा को मैंने अपने पैसों से साड़ी खरीद कर दी। घर की छोटी-छोटी चीजें खरीदती। मां कहती तू अपने पैसे मत खर्च कर। पर मैं कहां मानने वाली थी। मैं मां को चाट-पकौड़ी खिलाती। उसके लिए फूलों का गजरा खरीद कर जुड़े में लगाती। उसे आइसक्रीम खिलाती। यह सब पिताजी नहीं करने देते थे। या तो वे किसी बड़े होटल में ले जाते या फिर हम घर में ही खाना खाते। इस तरह मार्केट में छोटी-छोटी जगहों पर हमने वो सब किया जो पिताजी करने नहीं देते थे। देर शाम को पिताजी घर लौटते। एक दिन हमारे घर पहुंचने से पहले पिताजी आ गए थे। बड़े नाराज हुए। गाड़ी क्यों नहीं मंगवाई। रिक्शे में क्यों गए मैंने कहा था पहले हमने हिन्दी फिल्म देखी फिर मार्केट चले गए थे। पिताजी ने अफसरी अंदाज में डांटा था। वे चले गए तो मम्मा ने कहा था, तू तो जैसी थी वैसी थी ही पर तूने तो मुझे भी बिगाड़ दिया। पिताजी ने भी सुन लिया था और हम कितनी देर तक हंसते रहे थे।
Source : http://www.aparajita.org/read_more.php?id=23&position=4

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