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सूर्यास्त




मैं धरा हूँ

रात्रि के गहन तिमिर के बाद

भोर की बेला में

जब तुम्हारे उदित होने का समय आता है

मैं बहुत आल्हादित उल्लसित हो

तुम्हारे शुभागमन के लिए

पलक पाँवड़े बिछा

अपने रोम रोम में निबद्ध अंकुरों को

कुसुमित पल्लवित कर

तुम्हारा स्वागत करती हूँ !

तुम्हारे बाल रूप को अपनी

धानी चूनर में लपेट

तुम्हारे उजले ओजस्वी मुख को

अपनी हथेलियों में समेट

बार बार चूमती हूँ और तुम्हें

फलने फूलने का आशीर्वाद देती हूँ !

लेकिन तुम मेरे प्यार और आशीर्वाद

की अवहेलना कर

अपने शौर्य और शक्ति के मद में चूर

गर्वोन्नत हो

मुझे ही जला कर भस्म करने में

कोई कसर नहीं छोड़ते !

दिन चढ़ने के साथ-साथ

तुम्हारा यह रूप

और प्रखर, और प्रचंड,

रौद्र और विप्लवकारी होता जाता है !

लेकिन एक समय के बाद

जैसे हर मदांध आतातायी का

अवसान होता है !

संध्या के आगमन की दस्तक के साथ

तुम्हारा भी यह

रौरवकारी आक्रामक रूप

अवसान की ओर उन्मुख होने लगता है

और तुम थके हारे निस्तेज

विवर्ण मुख

पुन: मेरे आँचल में अपना आश्रय

ढूँढने लगते हो !

मैं धरा हूँ !

संसार के न जाने कितने कल्मष को

जन्म जन्मांतर से निर्विकार हो

मैं अपने अंतर में

समेटती आ रही हूँ !

आज तुम्हारा भी क्षोभ

और पश्चाताप से आरक्त मुख देख

मैं स्वयं को रोक नहीं पा रही हूँ !

आ जाओ मेरी गोद में

मैंने तुम्हें क्षमा किया

क्योंकि मैं धरा हूँ !

साधना वैद

Comments

तुम्हारा यह रूप
और प्रखर, और प्रचंड,
रौद्र और विप्लवकारी होता जाता है !
लेकिन एक समय के बाद
जैसे हर मदांध आतातायी का
अवसान होता है,

बहुत सुंदर भाव की रचना...साधना जी
.
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....
Shikha Kaushik said…
bahut sundar sadhna ji .aabhar
DR. ANWER JAMAL said…
बहुत गहरी बात बड़ी ख़ूबसूरती से कही है आपने।
और पश्चाताप से आरक्त मुख देख
मैं स्वयं को रोक नहीं पा रही हूँ !
आ जाओ मेरी गोद में


मैंने तुम्हें क्षमा किया
क्योंकि मैं धरा हूँ
....sahi bat .....bahut acchi abhwayakti....

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