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जानिए सफलता का अटल विधान

हाई स्कूल पास करते ही हमने पूरी जागरूकता के साथ फ़ैसला कर लिया था कि हम नेकी और ईमानदारी के साथ अपनी ज़िंदगी गुज़ारेंगे। बचपन से भी हम यही करते आए थे लेकिन वह एक आदत थी जो मां बाप को और घर के दूसरे लोगों को देखकर ख़ुद ही पड़ गई थी। अब अपनी राह ख़ुद चुननी थी और उस राह के अच्छे बुरे अंजाम को भी ख़ुद ही भोगना था। नौजवानी की उम्र एक ऐसा पड़ाव है, जहां संभावनाओं से भरा हुआ इंसान होता है और उसके सामने हज़ारों रास्ते होते हैं। वह उनमें से किस रास्ते पर चलता है, इसका फ़ैसला भी ख़ुद उसी को करना होता है।
इस उम्र में इंसान के दिल में हज़ारों सपने और हज़ारों ख्वाहिशें होती हैं। इसी के साथ उसकी और उसके परिवार की कुछ ज़रूरतें भी होती हैं और उन्हें पूरी करने की उम्मीदें भी उससे जुड़ी होती हैं। आर्थिक ज़रूरत इनमें सबसे अहम ज़रूरत है। इसे कोई भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। हम बी. एससी. (बायो.) में आए तो हम भी इसे नज़रअंदाज़ न कर सके।
अख़बारों को पढ़कर हमें लगा कि बिना रिश्वत दिए कहीं नौकरी लगेगी नहीं और रिश्वत हम देंगे नहीं। वह हमारे उसूल के खि़लाफ़ था। सो सरकारी नौकरी का ऑप्शन तो बंद ही था। मेडिकल की जो लाइन हमने चुनी थी, उस तक पहुंचने के लिए अभी कई साल दरकार थे। हमारे वालिद साहब हमसे कमाने के लिए बिल्कुल नहीं कह रहे थे लेकिन ज़रूरतों के तक़ाज़े हमें ख़ुद ही दिखाई दे रहे थे।
हमें हुक्म है कि जब भी कोई मुश्किल पेश आए तो क़ुरआन पढ़ो और पैग़ंबर मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का जीवन देखो, उसमें हर मसले का हल मौजूद है।
यह हमारा ईमान है और जब जब हमने ऐसा किया तो पता चला कि हक़ीक़त भी यही है।
अपनी आर्थिक समस्या के हल के लिए जब हमने पैग़ंबर मुहम्मद साहब स. के जीवन का अध्ययन किया तो हमने देखा कि जब वह जवान हुए तो उन्होंने रोज़ी के ज़रिये के तौर पर व्यापार को चुना था। क़ुरआन में भी व्यापार करने की प्रेरणा दी गई है और पैग़ंबर मुहम्मद साहब स. की हदीस में भी यह बयान मिलता है कि अल्लाह ने ज़मीन में दस हिस्से बरकत उतारी है तो नौ हिस्से बरकत व्यापार में रखी है।
हमने व्यापार करने की ठान ली लेकिन व्यापार के लिए दुकान और पूंजी की ज़रूरत पड़ती है। दुकान तो हमारे पास थी लेकिन पूंजी हमारे पास न थी और वालिद साहब से पूंजी मांग भी नहीं सकते थे क्योंकि वह हमारे इस फ़ैसले से सहमत न थे। उन्होंने हमारी पैदाइश से पहले भारी इन्वेस्टमेंट से रेडियो की बड़ी आलीशान दुकान की थी। तब रेडियो की शुरूआत ही हुई थी। तब यह सबसे आधुनिक काम माना जाता था और इसमें अच्छा मुनाफ़ा होता था। इसके बावजूद इस काम में उन्हें भारी नुक्सान हुआ। इसके बाद भी उन्होंने उसमें एक दो काम किए लेकिन उनमें भी नुक्सान ही हुआ और उसके बाद यह मान लिया गया कि ज़रूर दुश्मनों ने कुछ जादू वग़ैरह करके दुकान की बंदिश कर रखी है कि जो भी काम इसमें किया जाए वह सफल नहीं होता।
इसके बाद हमारे चाचाओं ने इसमें काम किया वह भी सफल न रहे। इसके बाद एक और रिश्तेदार जनाब असलम ख़ान ने अपना वक्त काटने की ग़र्ज़ से यह दुकान ले ली। उन्होंने पतंग वग़ैरह का काम बहुत थोड़े इन्वेस्टमेंट से किया और वह काम बहुत चला। हमारे छोटे भाई ने भी उसमें सॉफ़्ट ड्रिंक बनाने का काम शुरू कर दिया तो वह भी ख़ासा चल निकला। गर्मियां ख़त्म होने के साथ ही यह काम भी ख़त्म हो गया लेकिन इस काम ने यह बता दिया कि जादू जैसी कोई चीज़ इस दुकान पर नहीं है। दुकान के अब तक न चलने के पीछे कार्यकुशलता में कमी और ग़लत फ़ैसले जैसी चीज़ें ही रही हैं, जिनका कि ज़िक्र होता भी था।
इसके बाद यह दुकान हमारे चाचा मंसूर अनवर ख़ान साहब के एक दोस्त ने ले ली और उन्होंने इसमें साबुन बेचना शुरू किया। वह काम भी अच्छा चला लेकिन वह दुकान पर क़ब्ज़ा करने का ही मंसूबा बनाने लगे। उनकी योजना का इल्म हुआ तो हमारे वालिद साहब ने उनसे दुकान ख़ाली करवा ली। तब से बरसों गुज़र गए थे दुकान को बंद पड़े हुए लेकिन उसके बाद फिर किसी को दुकान नहीं दी।
इस तरह दुकान तो हमारे पास थी लेकिन यह दुकान शहर के ख़ास बाज़ार में थी और उसमें काम शुरू करने के लिए लाखों रूपये की पूंजी दरकार थी। वह पूंजी हमारे पास न थी। दुकान के लिए पूंजी का इंतेज़ाम हमें अपने ही बल पर करना था।
दुकान के लिए लाखों रूपये की पूंजी का इंतेज़ाम हम कैसे करें ?,
हमारे सामने यही सबसे बड़ी कठिनाई थी जिससे हमें जूझना पड़ा।
तब हमारी वालिदा साहिबा ने हमें अपने पास से 2700 रूपये दिए। हमने उनसे यह रक़म बतौर उधार ले ली लेकिन सन् 1991 में इस रक़म से मुख्य बाज़ार में कोई भी काम करना संभव न था। रक़म भी कम थी और हमें किसी कारोबार का कोई तजर्बा भी न था।
ऐसे में हम क्या काम करें ?
अब हम इस सवाल से जूझ रहे थे।
अल्लाह क़ुरआन के ज़रिये मोमिनों को सीधी राह दिखाता है। यह हमारा ईमान है। क़ुरआन हरेक समस्या का समाधान देता है। ईमान वाले बंदों को जब भी कोई समस्या परेशान करती है तो वे क़ुरआन में उसका हल ढूंढते हैं। हमने भी यही किया। एक रोज़ सुबह को हमने नमाज़े फ़ज्र में यह नीयत की कि ‘ऐ अल्लाह ! आप अपने कलाम के ज़रिये हमारी रहनुमाई फ़रमाइये कि हम किस चीज़ का व्यापार करें ?‘
यह नीयत करके हम इमाम के पीछे खड़े हो गए और पूरी सजगता के साथ क़ुरआन सुनने लगे। क़ुरआन हरेक समस्या का हल देता है। कभी तो यह हल बिल्कुल स्पष्ट होता है और कभी यह संकेत के रूप में होता है। इसलिए अपना पूरा ध्यान क़ुरआन पर एकाग्र करना होता है।
अगर नमाज़ का वक्त न हो तो पाक साफ़ होकर अल्लाह से बहुत आजिज़ी और विनम्रता के साथ रहनुमाई की दुआ करके कहीं से भी क़ुरआन खोलकर पढ़ना शुरू कर दिया जाता है, अपनी मुश्किल का हल मिल जाता है।
इमाम साहब ने सूरा ए फ़ातिहा के बाद ‘सूरा ए अबसा‘ पढ़नी शुरू की। हमें अपने सवाल का जवाब मिल गया जैसे ही उन्होंने ये आयतें पढ़नी शुरू कीं-
अतः मनुष्य को चाहिए कि अपने भोजन को देखे, (24) कि हमने ख़ूब पानी बरसाया, (25) फिर धरती को विशेष रूप से फाड़ा, (26) फिर हमने उसमें उगाए अनाज, (27) और अंगूर और तरकारी, (28) और ज़ैतून और खजूर, (29) और घने बाग़, (30) और मेवे और घास-चारा, (31) तुम्हारे लिए और तुम्हारे चौपायों के लिए जीवन-सामग्री के रूप में (32)
हम समझ गए कि अल्लाह हमसे ग़ल्ले का व्यापार करने के लिए कह रहा है।
मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब रह. अपने वतन आए हुए थे। अल्लाह से अपने निजी मसलों में रहनुमाई तलब करने का यह तरीक़ा हमें उन्होंने ही तालीम किया था। हम उनसे मिलने के लिए गए और हमने उन्हें अपना हाल बताया और यह भी बताया कि हमने आपके बताए तरीक़े से अल्लाह से रहनुमाई का सवाल किया तो यह सूरत हमें सुनवाई गई। हमने बताया कि हमारे पास सिर्फ़ 3 हज़ार रूपये ही हैं और वह भी पूरे नहीं हैं।
यह सुनकर मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रह. ने कहा कि ‘3 हज़ार रूपये तो बहुत हैं, अगर महज़ 3 रूपये भी होते तो मैं कहता कि आप तिजारत कीजिए।‘
यह सुनना था कि हमारा हौसला बुलंद हो गया और यक़ीन अपने कमाल को पहुंच गया। नुक्सान का अंदेशा दिल से पूरी तरह जाता रहा। इसके बाद मौलाना उस्मानी साहब रह. सूरा ए अबसा की तफ़्सीर करके हमें बताने लगे कि हमें किन किन चीज़ों का व्यापार करना चाहिए और किस तरह करना चाहिए।
इसी दरम्यान उनकी पत्नी मोहतरमा ख़दीजा आईं। दरवाज़े की आड़ से उन्होंने बताया कि वह घर में सिरदर्द की दवा ढूंढ रही हैं लेकिन उन्हें मिल नहीं रही है। कहां रखी है ?
मौलाना ने उन्हें दवा की जगह बताकर हमसे कहा कि देखो अल्लाह की तरफ़ से यह भी एक इशारा है कि आपको दवा देने का काम भी करना है और वाक़ई जैसा उन्होंने कहा था बाद में वैसा ही हुआ भी।
मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब रह. से मुलाक़ात के बाद दिल से हर तरह का शक तो रूख़सत हो चुका था लेकिन एक कॉम्पलैक्स अब भी मौजूद था और वह यह था कि हमारे ख़ानदान में बड़े काम करने का रिवाज है। थोड़ी सी पूंजी से ग़ल्ले का छोटा सा काम करना हमारी शान के खि़लाफ़ है।
दरहक़ीक़त इसी एक कॉम्पलैक्स ने हिंदुस्तान के नौजवानों को बेरोज़गार बना रखा है। इसे ‘व्हाइट कॉलर कॉम्पलैक्स‘ के नाम से भी जाना जाता है। हमारे सामने यह ख़ानदानी घमंड के रूप में खड़ा हुआ था। यह एक बहुत मुश्किल मरहला था हमारे लिए लेकिन हमने कलिमा ‘ला इलाहा इल्-लल्ललाह‘ पढ़कर अपने अहंकार को कुचल डाला कि हमारा माबूद तो अल्लाह है, जो उसने कह दिया है, हमें वही करना है, कोई भी चीज़ हमें उसका हुक्म मानने से रोक नहीं सकती।
दुकान में फ़र्नीचर और फ़िटिंग थी ही। हमने उसे अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ करवा लिया। इसके बाद हम सामान ख़रीदने पहुंचे। ख़रीदारी के दरम्यान ही हमें इत्तिला मिली कि हमारी नानी का इंतेक़ाल हो गया है। हम सारा सामान वहीं छोड़कर अपनी वालिदा वग़ैरह के साथ अपनी ननिहाल पहुंचे। इंतेक़ाल के वक्त नानी के पास अपने ख़र्च के तौर पर जो रूपये थे। वे हमारे मामूओं ने हमारी वालिदा और हमारी ख़ाला को दे दिए। इस तरह हमें अचानक ही 3 हज़ार रूपये और मिल गए। हम वहां से लौटे और हमने ख़रीदारी मुकम्मल की तो लगभग 9 हज़ार रूपये का सामान हो गया। 3 हज़ार रूपये दुकानदार ने हमारी तरफ़ उधार लिख लिए। दुकानदार भी कोई और नहीं था बल्कि परवेज़ चाचा थे जो हमारे चाचा वकील साहब के बहुत गहरे दोस्त थे। उनसे ही हमने ख़रीदारी की और उनसे ही हमने दुकानदारी के तौर तरीक़े सीखे। इतना ही नहीं शुरूआती कुछ दिनों तक वही हमारी दुकान पर बैठे भी।
शहर में हाजी इश्तियाक़ सबसे बड़े ईमानदार दुकानदार माने जाते हैं। परवेज़ भाई उनके ही कुनबे के हैं और इनका काम भी शहर में बहुत बड़ा काम माना जाता है। उनका नाम ही चीज़ के सही होने की गारंटी है। उन्हें बैठा देखकर लोगों ने पूछा कि ‘आप यहां कैसे बैठे हैं ?‘
परवेज़ चाचा ने यही जवाब दिया कि यह दुकान भी हमने ही खोली है।
हमारी दुकान देखकर आस पास के दुकानदार हंसने लगे कि इन्होंने फिर दुकान खोल ली है। जल्दी ही यह फिर बंद हो जाएगी। उनकी व्यंग्य भरी मुस्कुराहट ने हमारे जोश को और ज़्यादा बढ़ा दिया।
दुकान खोलने से पहले हमारी फूफी ने यह भी कहा कि ‘राजा ! इस दुकान को देखकर एक आमिल ने बताया है कि इसकी कड़ियां आड़ी रखी हुई हैं। इसीलिए दुकान नहीं चलती। तुम एक दरवाज़ा गली की तरफ़ भी खोल लो तो दुकान चल जाएगी।‘
हमने जवाब दिया कि ‘आप देखना कि अल्लाह ने चाहा तो यह दुकान आड़ी कड़ियों में ही चलेगी।‘
हमारे आस पास ग़ल्ले के बड़े बड़े व्यापारियों की दुकानें थीं। उनके मुक़ाबले हमारे पास सामान थोड़ा था। कम्पटीशन सख्त था। थोड़े दिन पहले ही एक व्यापारी ने लाखों रूपये लगाकर इसी मार्कीट में ग़ल्ले का काम किया था और उसने घाटा उठाकर दुकान बंद कर दी थी। ख़ुद हमारी दुकान भी बार बार बंद हो चुकी थी। लिहाज़ा उन तमाम रास्तों को बंद करना ज़रूरी था जहां से नुक्सान होने का अंदेशा था।
व्यापार को नुक्सान देने वाली ख़ास चीज़ें हैं-
1. माल उधार बेचना
2. फ़िज़ूलख़र्ची
3. बुरी आदतों वाले लोगों की दोस्ती


बुरी आदत वाला आदमी तो कोई हमारी दोस्ती में न था। लिहाज़ा हमने शुरू की दो बातों पर सख्ती से पाबंदी लगा दी। घर में भी कोई सामान जाता तो नक़द ही जाता।
इसके बाद ज़रूरत यह थी कि ग्राहकों की तादाद बढ़ाई जाए। इसके लिए हमने यह तय किया-
1. हम बासमती चावल या किसी भी चीज़ में मिलावट नहीं करेंगे
2. हम अपना माल बाज़ार भाव से सस्ता बेचेंगे

जैसे जैसे लोगों को पता चलता गया कि हमारे माल में मिलावट नहीं है और वह सस्ता भी है तो दूसरे मौहल्लों से और दूर दराज़ के गांवों से भी ग्राहक आने लगे। जितने ग्राहक आते वे हमसे नेकी और सच्चाई का उपदेश भी लेकर जाते। कोई लड़की आती तो वह सिर पर अपना दुपट्टा पहले ठीक करती, उसके बाद वह दुकान पर क़दम रखती। इस मामले में हमारे छोटे भाई हमसे भी ज़्यादा जोशीले हैं। वह बी. काम. कर रहे थे। हम दोनों सूरज उगने के साथ ही दुकान खोल लेते। बाद में अपने शौक़ की वजह से और कुछ हमारे बड़प्पन की वजह से वही दुकान खोलते और वही ख़रीदारी करते और हम शाम के वक्त दुकान पर जाया करते।
हमारा काम बहुत तेज़ी से बढ़ता चला गया। अब हम अपने शहर से ख़रीदारी करने के बजाय ज़िले की आढ़त से ख़रीदारी करने लगे और फिर एक ज़िले के बजाय दो ज़िलों से ख़रीदारी करने लगे। अब हमारी दुकान पर सामान रिक्शे के बजाय ट्रक से उतरने लगा। दुकान भर गई तो गोदाम किराए पर लिया गया और जब एक गोदाम भर गया तो फिर अपने ख़ाली पड़े एक मकान को भी गोदाम बनाना पड़ा।
हमने अपनी तालीम मुकम्मल करके दूसरा काम शुरू कर दिया और उसके बाद तीसरा और फिर चौथा काम शुरू कर दिया।
दुकान पर हमारे छोटे भाई बैठते रहे और फिर उन्होंने भी अपना एक नया काम शुरू कर दिया। उनके बाद हमारे तीसरे भाई हाफ़िज़ औसाफ़ अहमद ख़ां दुकान को संभालने लगे। फ़िलहाल वही दुकान को संभाल रहे हैं।
कड़ियों की छत और पुरानी फ़िटिंग जा चुकी है। अब नई सीमेंटेड छत है और सामान शीशे के शोकेस वाली शानदार फ़िटिंग में रखा है। मेवे और दाल की बोरियां इतनी हैं कि दुकान में चलने की जगह मुश्किल से बनानी पड़ती है।
दुकान अब भी मुनाफ़ा दे रही है। हमारे बाद नक़द बिक्री के उसूल को छोड़ दिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि हमारा लाखों रूपया लोगों ने दबा लिया। तक़ाज़ा करने का मतलब है, उनसे लड़ाई मोल लेना। ऐसे कई लोगों के पास हमारे वालिद साहब गए और उनकी शक्ल देखते ही लोगों ने रक़म वापस भी कर दी क्योंकि वे हमारे वालिद साहब को और उनके मिज़ाज को अच्छी तरह जानते हैं। हमने अपने वालिद साहब को मना कर दिया है कि आप इन लोगों को मत टोकिए। देने वाला अल्लाह है।
इस दरम्यान कुछ लड़कों ने हमारी दुकान पर नौकरी की। आज उन सबका अपना अपना कारोबार है और वे भी ईमानदारी और सच्चाई से अपनी अपनी दुकानें चला रही हैं। उनकी दुकानें भी सोना उगल रही हैं। इनमें से एक लड़का नौशाद है। जिसने हमारे यहां 300 रूपये माहवार पर नौकरी की और अब उसका अपना अच्छा बिज़नैस है। उसने अपनी कमाई से अपनी बहन की शादी की। अपनी मानसिक रोगी मां का शाहदरा दिल्ली के अस्पताल में कई साल तक इलाज कराया और अल्लाह ने उन्हें पूरी तरह तंदुरूस्त भी कर दिया। उसने अपनी कमाई से अपना मकान बनाया और आज एक ख़ुशहाल ज़िंदगी गुज़ार रहा है।
यह पैटर्न इतना कामयाब है कि हमने इसे जिसे भी बताया वह भी सुखी और समृद्ध हो गया।
ऊदल सिंह, लगभग 50 साल का, 8 बच्चों का बाप है और एक सरकारी चौकीदार है। गुज़र बसर के लिए वह मज़दूरी करता है। क़र्ज़ लेकर उसने अपने 2 लड़कों की बारी बारी से शादी की। शादी के बाद उसके लड़के उससे अलग हो गए और क़र्ज़ उसके सिर रह गया। उसने एक रोज़ हमसे अपनी ग़रीबी और अपने क़र्ज़दार होने की शिकायत की तो हमने उसे कहा कि वह एक मालिक का ध्यान करे और पैग़म्बर मुहम्मद साहब स. के तरीक़े पर व्यापार करे। हमने उससे कहा कि गांव में अपने घर के बाहर लकड़ी का तख्त डालकर तुम उस पर सब्ज़ी की दुकान करो। दो साल में तुम्हारा क़र्ज़ भी उतर जाएगा और तुम अमीर हो जाओगे।
6 माह बाद ही उसने अपनी पिंडलियों पर हाथ रखकर हमें बताया कि ‘गुरू जी ! मैं यहां तक तिर गया हूं।‘
उसकी सेहत भी अच्छी हो गई थी और उसके चेहरे से संतोष भी झलक रहा था।
इतनी तफ़्सील से यह सब बताने का मक़सद यह है कि इसे पढ़ने वालों में आशा का संचार हो।
सन 2020 तक भारत में काम करने लायक़ लोगों का प्रतिशत कुल आबादी का 64 प्रतिशत हो जाएगा। इनकी आयु 15-59 होगी । भारतीय की औसत आयु 29 वर्ष होगी और तब भारत दुनिया का सबसे नौजवान देश होगा। तब चीन, यूरोप और जापान में यह आयु क्रमश: 37, 45 व 48 होगा। ऐसे में हमारे पास एक विशाल ऊर्जा होगी। समाजशास्त्रियों को डर है कि रोज़गार के अवसर देकर इस ऊर्जा का रचनात्मक उपयोग न किया गया तो भारत एक भयंकर गृहयुद्ध में फंस जाएगा। भारत को विनाश से बचाना है तो हरेक हाथ को काम देना होगा और इतने बड़े पैमाने पर तुरंत रोज़गार के मौक़ों को पैदा करना केवल अकेले सरकार के बस की बात नहीं है। इसके लिए हमें अपनी सोच बदलनी होगी। रोज़गार के बेशुमार अवसर हमारे चारों तरफ़ बिखरे हुए हैं। हमें उन अवसरों को पहचानना सीखना होगा।
सपने और महत्वाकांक्षाएं अच्छी बातें हैं लेकिन उन्हें पाने के लिए हमें हक़ीक़त की ज़मीन पर मेहनत करनी पड़ेगी।
नेकी, सच्चाई और ईमानदारी मार्कीट में आपकी साख बनाती हैं और मेहनत आपको सफलता दिलाती है। ईश्वर अल्लाह इसी बात का उपदेश करता है। धर्म यही है.
मानव जाति का कल्याण इसी में निहित है। ऐसा हमने क़ुरआन में भी पढ़ा है और अपने अनुभव से भी हमने यही जाना है।
दुनिया में कोई एक भी नहीं है जो इस महान सत्य को नकार सके।
सुख-शांति, समृद्धि और सफलता का मार्ग यही है।

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