यूटराइन फाइब्रॉइड महिलाओं के यूटरस से जुड़ी बीमारी है। यह एक तरह का गैर कैंसरस ट्यूमर है, जो तकरीबन 50 फीसदी महिलाओं को उनके जीवन में कभी न कभी हो ही जाता है। एक्सपर्ट्स से बात करके हम इसके कारणों, लक्षण और इलाज के तरीकों के बारे में बता रहे हैं :
यूटराइन फाइब्रॉइड गर्भाशय का गैर कैंसरस ट्यूमर है। इसे गर्भाशय की रसौली भी कहा जाता है। गर्भाशय की मांसपेशियों में छोटी-छोटी गोलाकार गांठें बनती हैं, जो किसी महिला में कम बढ़ती हैं और किसी में ज्यादा। यह मटर के दाने के बराबर भी हो सकती हैं और किसी-किसी महिला में यह बढ़ कर फुटबॉल जैसा आकार भी ले सकती हैं।
कई मामलों में इसका औसत वजन 1 से 2 किग्रा. या इससे भी ज्यादा हो जाता है। कई बार यह बहुत बड़ी होकर भी जान को खतरा नहीं पहुंचाती, जबकि कई बार कम साइज की होकर भी जानलेवा हो सकती हैं।
तकरीबन 50 फीसदी महिलाओं को उनके जीवन में कभी न कभी यूटराइन फाइब्रॉइड्स होता है, लेकिन ज्यादातर महिलाओं को इसका पता ही नहीं चलता क्योंकि शुरुआती तौर पर इसका कोई लक्षण नजर नहीं आता। दो तिहाई मामले ऐसे होते हैं, जिनमें इसका कोई लक्षण सामने नहीं आता। डिलिवरी से पहले होने वाले अल्ट्रासाउंड या किसी और जांच में इसका पता चल जाता है। कुछ महिलाओं में रसौली छिपी रहती है और जांच से ही पकड़ में आती है। छोटी रसौलियां बहुत पाई जाती हैं। अगर यह साइज में बहुत बड़ी हो जाएं तो महिलाओं को बार-बार मिसकैरिज होने लगते हैं और गर्भ ठहरने करने में दिक्कत होती है।
यूटराइन फाइब्रॉइड के बारे में कहा जाता है कि इसके शरीर में होने के बाद भी कई महिलाओं को न तो इससे कोई दिक्कत होती है और न इसका कोई लक्षण दिखाई देता है। कुछ केसों में ऐसे फाइब्रॉइड को बिना इलाज के भी छोड़ा जा सकता है लेकिन कुछ मामलों में अगर फाइब्रॉइड कोई लक्षण नहीं दिखा रहा है तो भी उसे निकलवाना जरूरी है। यह कितनी तेज गति से बढ़ रहा है, इस पर ध्यान रखना भी जरूरी है क्योंकि ऐसा फाइब्रॉइड कैंसरस भी हो सकता है, हालांकि इसकी आशंका बहुत कम होती है। कुल यूटराइन फाइब्रॉइड के आधा फीसदी से भी कम केस कैंसरस होते हैं। सिर्फ अल्ट्रासाउंड या एमआरआई कराने से इसका फर्क पता नहीं चलता है।
लक्षण
यूटराइन फाइब्रॉइड हो सकते हैं अगर इनमें से कुछ लक्षण हैं:
पीरियड्स के दौरान भारी मात्रा में ब्लीडिंग
पीरियड्स स्वाभाविक तीन-चार दिन न होकर आठ-दस दिनों तक चलते हैं।
पीरियड्स के दौरान पेट के नीचे के हिस्से में दर्द महसूस होता है।
पीरियड्स खत्म होने के बाद भी बीच-बीच में प्राइवेट पार्ट से खून आने की शिकायत होती है।
ज्यादा ब्लीडिंग की वजह से शरीर में खून की कमी हो जाती है। लापरवाही बरती जाए तो एनीमिया भी हो सकता है।
शरीर में कमजोरी महसूस होती है।
प्राइवेट पार्ट से बदबूदार डिस्चार्ज होने लगता है (रसौली में इन्फेक्शन होने पर ऐसा होता है)।
कभी पेट में अचानक दर्द उठता है, जो रसौली के भीतर घूमने से होता है।
रसौली के बढ़ने से बड़ी आंत व मलाशय पर भार पड़ता है, इससे कब्ज होती है।
मूत्राशय पर दबाव बढ़ता है तो पेशाब रुक-रुककर होता है और बार-बार जाना पड़ता है।
गर्भधारण में बाधा पड़ती है। गर्भ ठहरने पर गर्भपात भी हो जाता है।
किस उम्र में
यूटराइन फाइब्रॉइड अक्सर बच्चे पैदा कर सकने वाली उम्र में होता है यानी आमतौर पर 20 साल की उम्र हो जाने के बाद ही यह बीमारी होती है।
ज्यादातर महिलाओं में यह 30 से 45 साल की उम्र के बीच देखा जाता है।
कुछ महिलाओं में मीनोपॉज के बाद ही यह सामने आता है, पर उसकी बुनियाद पहले पड़ चुकी होती है। वैसे, मीनोपॉज के बाद जब शरीर में एस्ट्रोजन का लेवल कम होने जगता है तो ये अपने आप सिकुड़ने लगते हैं।
ये हैं वजहें
महिलाओं में यूटराइन फाइब्रॉइड क्यों होता है, इसके पीछे कोई खास वजहें नहीं हैं। फिर भी ऐसा माना जाता है कि जिनेटिक असंगतता, वैस्कुलर सिस्टम (ब्लड वेसल) की गड़बड़ी जैसी कुछ बातें हैं जो इसके बनने में बड़ा रोल निभाती हैं।
अगर परिवार में किसी को यूटराइन फाइब्रॉइड है, तो इसके होने की आशंका बढ़ जाती है।
10 साल की उम्र से पहले पीरियड्स शुरू होना, शराब खासकर बीयर का सेवन, गर्भाशय में होने वाला कोई भी इन्फेक्शन और हाई ब्लडप्रेशर के कारण भी यूटराइन फाइब्रॉइड्स होने का रिस्क बढ़ जाता है।
शरीर में जब एस्ट्रोजन की मात्रा बढ़ती है, तो फाइब्रॉइड्स होने का रिस्क बढ़ जाता है। प्रेग्नेंसी के दौरान इस हॉर्मोन की मात्रा बढ़ती है।
जो महिलाएं गर्भनिरोधक गोलियां ले रही हैं, उनमें भी एस्ट्रोजन का लेवल बढ़ता है, लेकिन इन गोलियों में प्रोजेस्ट्रॉन भी होता है और यह हॉर्मोन यूटराइन फाइब्रॉइड के रिस्क को कम करता है। ऐसे में माना जा सकता है कि गर्भनिरोधक गोलियां लेने से यूटराइन फाइब्रॉइड होने का रिस्क नहीं बढ़ता।
मोटी महिलाओं में भी यूटराइन फाइब्रॉइड होने के चांस सामान्य महिलाओं के मुकाबले दो से तीन गुने हो सकते हैं।
क्या करें कि हो ही न
जो महिलाएं रोजाना 40 मिनट वॉक करती हैं, उन्हें फाइब्रॉइड होने का रिस्क काफी कम हो जाता है।
इसके अलावा मौसमी फल और सब्जियां लगातार लेती रहें और फास्ट फूड से बचें। हेल्दी लाइफस्टाइल इस स्थिति से बचने में मददगार है।
तेज दर्द हो तो क्या करें
अगर पीरियड्स के दौरान दर्द और ब्लीडिंग बहुत ज्यादा हो रही है तो अपने डॉक्टर से फौरन मिलें। इस बीच ये काम कर सकती हैं :
ज्यादा से ज्यादा आराम करें।
ऐसा खाना खाएं जो आयरन से भरपूर हो। पालक में खूब आयरन होता है।
पेट की गर्म पानी की बोतल से सिकाई करें।
प्रेग्नेंसी और फाइब्रॉइड
जिन महिलाओं को फाइब्रॉइड होते हैं, उन्हें प्रेग्नेंट होने में और अगर प्रेग्नेंट हो जाएं तो डिलिवरी होने में दिक्कत हो सकती है, लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है। कई महिलाओं को नॉर्मल प्रेग्नेंसी भी होती है। अगर महिला को फाइब्रॉइड हैं तो डिलिवरी के वक्त सिजेरियन ऑपरेशन होने की संभावना बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। इसके अलावा डिलिवरी से पहले ही यूटरस की दीवार से प्लेसेंटा टूट सकता है। ऐसे में फीटस को भरपूर ऑक्सिज`न नहीं मिल पाती। साथ ही वक्त से पहले डिलिवरी की समस्या भी हो सकती है।
ये हैं इलाज के तरीके
होम्योपैथी
यूटराइन फाइब्रॉइड्स में आमतौर पर जो भी ट्यूमर होते हैं, वे गैर कैंसरस होते हैं इसलिए फौरी सर्जरी की जरूरत नहीं होती। ऐसे में होम्योपैथी के जरिए पूरी तरह ठीक किया जा सकता है। होम्योपैथिक इलाज के दौरान डॉक्टर महिला का लगातार अल्ट्रासाउंड कराकर देखते हैं और उसी प्रोग्रेस के आधार पर इलाज आगे बढ़ता है। चार से छह महीने के इलाज में मरीज को ठीक किया जा सकता है। ये कुछ दवाएं हैं जो आमतौर पर दी जाती हैं। बिना डॉक्टरी सलाह के कोई भी दवा नहीं लेनी है।
कॉन्स्टिट्यूशनल (मरीज के स्वभाव और बनावट के आधार पर)
Calcaria carb. : यूटराइन फाइब्रॉइड से पीड़ित उन महिलाओं को दी जाती है, जो गोरी और मोटी हैं। इन्हें पसीना ज्यादा आता है और सर्दी भी ज्यादा लगती है।
Pulsatilla : जिन महिलाओं को रोना जल्दी आता है। सांत्वना दें तो अच्छा लगता है, उन्हें ये दवा दी जाती है।
Sepia : उन महिलाओं को दी जाती है जो पतली-दुबली हैं और चेहरे पर निशान हैं। इनमें इमोशन नहीं होते और प्यास कम लगती है।
Phosphorus : यह दवा उन महिलाओं को दी जाती है जो लंबी और गोरी हैं। इन्हें ठंडी चीजें बहुत पसंद हैं और ये मिलनसार होती हैं।
Natrum Mur : यह दवा उन मरीजों को देते हैं, जिनकी मन:स्थिति दुखी होती है। इन्हें गर्मी ज्यादा लगती है और प्यास भी खूब लगती है।
एलोपैथी दवाएं
अगर फाइब्रॉइड बेहद छोटे हैं और किसी दिक्कत को नहीं बढ़ा रहे हैं तो फौरन किसी इलाज की जरूरत नहीं होती। अगर साइज बढ़ रहा है तो दवाओं से इलाज किया जाता है, लेकिन दवाओं से इसका परमानेंट इलाज संभव नहीं है। दवाओं से फाइब्रॉइड्स सिकुड़ जाते हैं और कुछ समय के लिए ही आराम मिलता है। वैसे भी दवाओं को छह महीने से ज्यादा नहीं दिया जाता क्योंकि इसके साइड इफेक्ट्स होते हैं। फाइब्रॉइड की वजह से अगर यूटरस का साइज 12 हफ्ते के गर्भ जितना हो गया है, तो फौरन इलाज शुरू किया जाता है।
सर्जरी
अगर दवाओं से चीजें काबू न हो रही हों या फाइब्रॉइड का साइज ज्यादा बढ़ गया हो तो डॉक्टर सर्जरी की सलाह देते हैं।
मायोमेक्टमी: ऐसी महिलाओं के लिए मायोमेक्टमी सर्जरी कराने की सलाह दी जाती है। इसमें फाइब्रॉइड को निकाल दिया जाता है और गर्भाशय को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। एब्डॉमिनल मायोमेक्टमी में एब्डॉमेन में चीरा लगाकर फाइब्रॉइड को निकाला जाता है। इस सर्जरी के तीन दिन बाद महिला घर जा सकती है। इसके बाद नॉर्मल काम पर लौटने में आमतौर पर चार हफ्ते का वक्त लग सकता है।
फायदे: फाइब्रॉइड के इलाज का यह परंपरागत तरीका है और दुनिया भर में सबसे ज्यादा सर्जरी इसी तरीके से की जाती हैं। यूटरस बना रहता है।
नुकसान: इस सर्जरी को कराने के बाद इस बात के 25 फीसदी चांस हैं कि सर्जरी के 10 साल के भीतर नए फाइब्रॉइड बन जाएं।
हिस्टरेक्टमी: इस तरीके में यूटरस को ही निकाल दिया जाता है
किसके लिए: यह सर्जरी ऐसी महिलाओं को कराने की सलाह दी जाती है, जिनका परिवार पूरा हो चुका है और जिनकी आगे बच्चा पैदा करने की प्लानिंग नहीं है। फाइब्रॉइड ज्यादा बढ़ चुके हैं और परेशानी ज्यादा है, तो इसे कराने की सलाह देते हैं।
फायदे: गारंटी है फाइब्रॉइड दोबारा नहीं होंगे।
नुकसान : यूटरस निकल जाने के बाद शरीर में हॉर्मोनल असंतुलन हो सकता है। शरीर में खालीपन लग सकता है और कमर दर्द की समस्या भी हो सकती है। डॉ. शारदा जैन के मुताबिक, यूके और यूएस जैसे तमाम देशों में ऐसे नियम बनाए गए हैं जिनके मुताबिक डॉक्टरों को हिस्टरेक्टमी के ऑप्शन पर तभी जाना चाहिए, जब बेहद जरूरी हो। अपने देश में ऐसा कोई नियम नहीं है। लोगों को खुद समझना चाहिए कि इस सर्जरी के लिए काफी अनुभव और स्किल जरूरत होती है इसलिए अपने सर्जन का चयन पूरी सावधानी के साथ करें।
लैप्रोस्कोपिक : मायोमेक्टमी और हिस्टरेक्टमी दोनों ही लैप्रोस्कोपिक (छोटे सुराख से) तरीके से भी की जा सकती हैं। इस प्रक्रिया से सर्जरी करने के बाद ठीक होने का समय कम हो जाता है। लेकिन दोनों ही इनवेसिव तरीके तो हैं ही जिनमें एनैस्थिसिया और सर्जरी के बाद की कुछ जटिलताओं की संभावना हमेशा रहती है।
यूटराइन आर्टरी इम्बोलाइजेशन : इसमें कुछ बेहद छोटे पार्टिकल ब्लड वेसल्स के माध्यम से इंजेक्ट किए जाते हैं। ये पार्टिकल उन आर्टरीज को ब्लॉक कर देते हैं जो फाइब्रॉइड्स को ब्लड की सप्लाई करती हैं। जब फाइब्रॉइड्स को ब्लड की सप्लाई बंद हो जाती है तो वे खुद-ब-खुद सिकुड़ने लगते हैं।
किसके लिए : जिन महिलाओं में फाइब्रॉइड का साइज काफी बड़ा है, उनमेंइस तरीके का इस्तेमाल कर सकते हैं।
फायदे : इस तरीके से इलाज के बाद महिला के अंदर लक्षण खत्म हो जाते हैं।
नुकसान : फाइब्रॉइड खत्म नहीं होते। उनका आकार कम हो जाता है।
हाईफू (नॉन इनवेसिव मैथड) : फिलिप्स का सोनालेव एमआर एचआईएफयू सिस्टम यूटराइन फाइब्रॉइड के इलाज को ज्यादा आसान और सटीक बनाता है। इसमें न तो किसी सर्जरी की जरूरत होती है और न ही कोई रेडिएशन का खतरा।
बिना एनैस्थिसिया के दाग-निशान से मुक्त इलाज मिलता है। इसमें सेफ और फोकस्ड अल्ट्रासाउंड वेव्स की मदद से शरीर के भीतर बीमार टिश्यू को नष्ट कर दिया जाता है। सर्जरी की प्रक्रिया में कुल तीन घंटे का वक्त लगता है। मरीज उसी दिन अस्पताल से घर जा सकता है और वापस काम पर लौटने में भी उसे ज्यादा दिन नहीं लगते। जबकि इलाज के वर्तमान तरीके में सर्जरी की जाती है और काम पर लौटने में 10 दिन तक का वक्त लग जाता है। महिला प्रेग्नेंट है तो यह नहीं की जाती। यह तकनीक मुंबई के दो सेंटरों के अलावा अपोलो (दिल्ली, हैदराबाद और चेन्नै) में उपलब्ध है। इसमें खर्च उतना ही आता है, जितना परंपरागत तरीके से।
सर्जरी का खर्च : सर्जरी में आमतौर पर 50 हजार से एक लाख रुपये तक खर्च आता है, जो निर्भर है इस बात पर कि किस अस्पताल में यह ऑपरेशन करा रहे हैं और कौन सा ऑपरेशन करा रहे हैं।
आयुर्वेद और योग
यूटराइन फाइब्रॉइड के कई मामले ऐसे होते हैं जिन्हें आयुर्वेद और योग की मदद से ठीक किया जा सकता है। डॉक्टर पूरी जांच करने के बाद यह बताते हैं कि उसका फाइब्रॉइड आयुर्वेदिक इलाज से ठीक हो सकता है या उसे सर्जरी के लिए जाना चाहिए।
किसके लिए: अगर फाइब्रॉइड इस स्थिति में है कि उसका इलाज बिना सर्जरी हो सके तो आयुर्वेद में इसके लिए पंचकर्म (पत्र पिंड चिकित्सा) की जाती है। इसमें शरीर का प्यूरिफिकेशन किया जाता है। डेढ़ घंटे की एक सिटिंग होती है और ऐसी कुल मिलाकर 10 सिटिंग लेनी पड़ती हैं। इसके बाद महीने में एक बार बुलाया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान आयुर्वेद दवाएं भी खाने को दी जाती हैं।
खर्च : एक सिटिंग का खर्च 500 से 600 रुपये आता है।
यौगिक क्रियाएं : किसी महिला को यूटराइन फाइब्रॉइड होने का मतलब है कि उसके यौन अंग पूरी तरह स्वस्थ नहीं हैं इसलिए महिला को यौनांग से संबंधित कुछ यौगिक पोश्चर और एक्सरसाइज भी बताई जाती हैं, जिन्हें करने से इसमें फायदा मिलता है। कुछ यौगिक क्रियाएं और प्राणायाम भी हैं जिन्हें किया जा सकता है। इनमें खास हैं प्राण मुद्रा जिसे सुबह-शाम 20-20 मिनट के लिए कर लेना चाहिए। शवासन, गोरक्षासन और जानुशीर्षासन भी काफी फायदेमंद हैं। भ्रामरी और उज्जयी प्राणायाम भी कर सकते हैं। सभी यौगिक क्रियाओं को किसी योग्य योग गुरु से सीखकर ही करना चाहिए।
फायदा : आयुर्वेद और योग से इलाज का एक बड़ा फायदा यह होता है कि एक बार ठीक हो जाने के बाद सिस्ट दोबारा नहीं होता, जबकि सर्जिकल तरीके से इसे रिमूव कराने से सिस्ट दोबारा होने का अंदेशा बना रहता है। इसके अलावा आयुर्वेदिक तरीके से इलाज के दौरान न तो कोई दर्द होता है और न इसका कोई साइड इफेक्ट है।
सीमाएं : बढ़े हुए मामलों में जहां यह तरीका कारगर नहीं होता, वहां इसके बाद सर्जरी का तरीका भी अपनाया जा सकता है।
एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. शारदा जैन, डायरेक्टर, लाइफ केयर सेंटर
डॉ. उर्वशी प्रसाद झा, गाइनिकॉलजिस्ट, फोर्टिस हॉस्पिटल
डॉ. सुशील वत्स, सीनियर होम्योपैथ
योगी डॉ. अमृत राज, योग एंड आयुर्वेद विशेषज्ञ
डॉ. नीलम अग्रवाल, आयुर्वेदाचार्य स्त्री रोग विशेषज्ञ, आरोग्यधाम
सर्जरी का लाइव विडियो
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यूटराइन फाइब्रॉइड गर्भाशय का गैर कैंसरस ट्यूमर है। इसे गर्भाशय की रसौली भी कहा जाता है। गर्भाशय की मांसपेशियों में छोटी-छोटी गोलाकार गांठें बनती हैं, जो किसी महिला में कम बढ़ती हैं और किसी में ज्यादा। यह मटर के दाने के बराबर भी हो सकती हैं और किसी-किसी महिला में यह बढ़ कर फुटबॉल जैसा आकार भी ले सकती हैं।
कई मामलों में इसका औसत वजन 1 से 2 किग्रा. या इससे भी ज्यादा हो जाता है। कई बार यह बहुत बड़ी होकर भी जान को खतरा नहीं पहुंचाती, जबकि कई बार कम साइज की होकर भी जानलेवा हो सकती हैं।
तकरीबन 50 फीसदी महिलाओं को उनके जीवन में कभी न कभी यूटराइन फाइब्रॉइड्स होता है, लेकिन ज्यादातर महिलाओं को इसका पता ही नहीं चलता क्योंकि शुरुआती तौर पर इसका कोई लक्षण नजर नहीं आता। दो तिहाई मामले ऐसे होते हैं, जिनमें इसका कोई लक्षण सामने नहीं आता। डिलिवरी से पहले होने वाले अल्ट्रासाउंड या किसी और जांच में इसका पता चल जाता है। कुछ महिलाओं में रसौली छिपी रहती है और जांच से ही पकड़ में आती है। छोटी रसौलियां बहुत पाई जाती हैं। अगर यह साइज में बहुत बड़ी हो जाएं तो महिलाओं को बार-बार मिसकैरिज होने लगते हैं और गर्भ ठहरने करने में दिक्कत होती है।
यूटराइन फाइब्रॉइड के बारे में कहा जाता है कि इसके शरीर में होने के बाद भी कई महिलाओं को न तो इससे कोई दिक्कत होती है और न इसका कोई लक्षण दिखाई देता है। कुछ केसों में ऐसे फाइब्रॉइड को बिना इलाज के भी छोड़ा जा सकता है लेकिन कुछ मामलों में अगर फाइब्रॉइड कोई लक्षण नहीं दिखा रहा है तो भी उसे निकलवाना जरूरी है। यह कितनी तेज गति से बढ़ रहा है, इस पर ध्यान रखना भी जरूरी है क्योंकि ऐसा फाइब्रॉइड कैंसरस भी हो सकता है, हालांकि इसकी आशंका बहुत कम होती है। कुल यूटराइन फाइब्रॉइड के आधा फीसदी से भी कम केस कैंसरस होते हैं। सिर्फ अल्ट्रासाउंड या एमआरआई कराने से इसका फर्क पता नहीं चलता है।
लक्षण
यूटराइन फाइब्रॉइड हो सकते हैं अगर इनमें से कुछ लक्षण हैं:
पीरियड्स के दौरान भारी मात्रा में ब्लीडिंग
पीरियड्स स्वाभाविक तीन-चार दिन न होकर आठ-दस दिनों तक चलते हैं।
पीरियड्स के दौरान पेट के नीचे के हिस्से में दर्द महसूस होता है।
पीरियड्स खत्म होने के बाद भी बीच-बीच में प्राइवेट पार्ट से खून आने की शिकायत होती है।
ज्यादा ब्लीडिंग की वजह से शरीर में खून की कमी हो जाती है। लापरवाही बरती जाए तो एनीमिया भी हो सकता है।
शरीर में कमजोरी महसूस होती है।
प्राइवेट पार्ट से बदबूदार डिस्चार्ज होने लगता है (रसौली में इन्फेक्शन होने पर ऐसा होता है)।
कभी पेट में अचानक दर्द उठता है, जो रसौली के भीतर घूमने से होता है।
रसौली के बढ़ने से बड़ी आंत व मलाशय पर भार पड़ता है, इससे कब्ज होती है।
मूत्राशय पर दबाव बढ़ता है तो पेशाब रुक-रुककर होता है और बार-बार जाना पड़ता है।
गर्भधारण में बाधा पड़ती है। गर्भ ठहरने पर गर्भपात भी हो जाता है।
किस उम्र में
यूटराइन फाइब्रॉइड अक्सर बच्चे पैदा कर सकने वाली उम्र में होता है यानी आमतौर पर 20 साल की उम्र हो जाने के बाद ही यह बीमारी होती है।
ज्यादातर महिलाओं में यह 30 से 45 साल की उम्र के बीच देखा जाता है।
कुछ महिलाओं में मीनोपॉज के बाद ही यह सामने आता है, पर उसकी बुनियाद पहले पड़ चुकी होती है। वैसे, मीनोपॉज के बाद जब शरीर में एस्ट्रोजन का लेवल कम होने जगता है तो ये अपने आप सिकुड़ने लगते हैं।
ये हैं वजहें
महिलाओं में यूटराइन फाइब्रॉइड क्यों होता है, इसके पीछे कोई खास वजहें नहीं हैं। फिर भी ऐसा माना जाता है कि जिनेटिक असंगतता, वैस्कुलर सिस्टम (ब्लड वेसल) की गड़बड़ी जैसी कुछ बातें हैं जो इसके बनने में बड़ा रोल निभाती हैं।
अगर परिवार में किसी को यूटराइन फाइब्रॉइड है, तो इसके होने की आशंका बढ़ जाती है।
10 साल की उम्र से पहले पीरियड्स शुरू होना, शराब खासकर बीयर का सेवन, गर्भाशय में होने वाला कोई भी इन्फेक्शन और हाई ब्लडप्रेशर के कारण भी यूटराइन फाइब्रॉइड्स होने का रिस्क बढ़ जाता है।
शरीर में जब एस्ट्रोजन की मात्रा बढ़ती है, तो फाइब्रॉइड्स होने का रिस्क बढ़ जाता है। प्रेग्नेंसी के दौरान इस हॉर्मोन की मात्रा बढ़ती है।
जो महिलाएं गर्भनिरोधक गोलियां ले रही हैं, उनमें भी एस्ट्रोजन का लेवल बढ़ता है, लेकिन इन गोलियों में प्रोजेस्ट्रॉन भी होता है और यह हॉर्मोन यूटराइन फाइब्रॉइड के रिस्क को कम करता है। ऐसे में माना जा सकता है कि गर्भनिरोधक गोलियां लेने से यूटराइन फाइब्रॉइड होने का रिस्क नहीं बढ़ता।
मोटी महिलाओं में भी यूटराइन फाइब्रॉइड होने के चांस सामान्य महिलाओं के मुकाबले दो से तीन गुने हो सकते हैं।
क्या करें कि हो ही न
जो महिलाएं रोजाना 40 मिनट वॉक करती हैं, उन्हें फाइब्रॉइड होने का रिस्क काफी कम हो जाता है।
इसके अलावा मौसमी फल और सब्जियां लगातार लेती रहें और फास्ट फूड से बचें। हेल्दी लाइफस्टाइल इस स्थिति से बचने में मददगार है।
तेज दर्द हो तो क्या करें
अगर पीरियड्स के दौरान दर्द और ब्लीडिंग बहुत ज्यादा हो रही है तो अपने डॉक्टर से फौरन मिलें। इस बीच ये काम कर सकती हैं :
ज्यादा से ज्यादा आराम करें।
ऐसा खाना खाएं जो आयरन से भरपूर हो। पालक में खूब आयरन होता है।
पेट की गर्म पानी की बोतल से सिकाई करें।
प्रेग्नेंसी और फाइब्रॉइड
जिन महिलाओं को फाइब्रॉइड होते हैं, उन्हें प्रेग्नेंट होने में और अगर प्रेग्नेंट हो जाएं तो डिलिवरी होने में दिक्कत हो सकती है, लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है। कई महिलाओं को नॉर्मल प्रेग्नेंसी भी होती है। अगर महिला को फाइब्रॉइड हैं तो डिलिवरी के वक्त सिजेरियन ऑपरेशन होने की संभावना बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। इसके अलावा डिलिवरी से पहले ही यूटरस की दीवार से प्लेसेंटा टूट सकता है। ऐसे में फीटस को भरपूर ऑक्सिज`न नहीं मिल पाती। साथ ही वक्त से पहले डिलिवरी की समस्या भी हो सकती है।
ये हैं इलाज के तरीके
होम्योपैथी
यूटराइन फाइब्रॉइड्स में आमतौर पर जो भी ट्यूमर होते हैं, वे गैर कैंसरस होते हैं इसलिए फौरी सर्जरी की जरूरत नहीं होती। ऐसे में होम्योपैथी के जरिए पूरी तरह ठीक किया जा सकता है। होम्योपैथिक इलाज के दौरान डॉक्टर महिला का लगातार अल्ट्रासाउंड कराकर देखते हैं और उसी प्रोग्रेस के आधार पर इलाज आगे बढ़ता है। चार से छह महीने के इलाज में मरीज को ठीक किया जा सकता है। ये कुछ दवाएं हैं जो आमतौर पर दी जाती हैं। बिना डॉक्टरी सलाह के कोई भी दवा नहीं लेनी है।
कॉन्स्टिट्यूशनल (मरीज के स्वभाव और बनावट के आधार पर)
Calcaria carb. : यूटराइन फाइब्रॉइड से पीड़ित उन महिलाओं को दी जाती है, जो गोरी और मोटी हैं। इन्हें पसीना ज्यादा आता है और सर्दी भी ज्यादा लगती है।
Pulsatilla : जिन महिलाओं को रोना जल्दी आता है। सांत्वना दें तो अच्छा लगता है, उन्हें ये दवा दी जाती है।
Sepia : उन महिलाओं को दी जाती है जो पतली-दुबली हैं और चेहरे पर निशान हैं। इनमें इमोशन नहीं होते और प्यास कम लगती है।
Phosphorus : यह दवा उन महिलाओं को दी जाती है जो लंबी और गोरी हैं। इन्हें ठंडी चीजें बहुत पसंद हैं और ये मिलनसार होती हैं।
Natrum Mur : यह दवा उन मरीजों को देते हैं, जिनकी मन:स्थिति दुखी होती है। इन्हें गर्मी ज्यादा लगती है और प्यास भी खूब लगती है।
एलोपैथी दवाएं
अगर फाइब्रॉइड बेहद छोटे हैं और किसी दिक्कत को नहीं बढ़ा रहे हैं तो फौरन किसी इलाज की जरूरत नहीं होती। अगर साइज बढ़ रहा है तो दवाओं से इलाज किया जाता है, लेकिन दवाओं से इसका परमानेंट इलाज संभव नहीं है। दवाओं से फाइब्रॉइड्स सिकुड़ जाते हैं और कुछ समय के लिए ही आराम मिलता है। वैसे भी दवाओं को छह महीने से ज्यादा नहीं दिया जाता क्योंकि इसके साइड इफेक्ट्स होते हैं। फाइब्रॉइड की वजह से अगर यूटरस का साइज 12 हफ्ते के गर्भ जितना हो गया है, तो फौरन इलाज शुरू किया जाता है।
सर्जरी
अगर दवाओं से चीजें काबू न हो रही हों या फाइब्रॉइड का साइज ज्यादा बढ़ गया हो तो डॉक्टर सर्जरी की सलाह देते हैं।
मायोमेक्टमी: ऐसी महिलाओं के लिए मायोमेक्टमी सर्जरी कराने की सलाह दी जाती है। इसमें फाइब्रॉइड को निकाल दिया जाता है और गर्भाशय को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। एब्डॉमिनल मायोमेक्टमी में एब्डॉमेन में चीरा लगाकर फाइब्रॉइड को निकाला जाता है। इस सर्जरी के तीन दिन बाद महिला घर जा सकती है। इसके बाद नॉर्मल काम पर लौटने में आमतौर पर चार हफ्ते का वक्त लग सकता है।
फायदे: फाइब्रॉइड के इलाज का यह परंपरागत तरीका है और दुनिया भर में सबसे ज्यादा सर्जरी इसी तरीके से की जाती हैं। यूटरस बना रहता है।
नुकसान: इस सर्जरी को कराने के बाद इस बात के 25 फीसदी चांस हैं कि सर्जरी के 10 साल के भीतर नए फाइब्रॉइड बन जाएं।
हिस्टरेक्टमी: इस तरीके में यूटरस को ही निकाल दिया जाता है
किसके लिए: यह सर्जरी ऐसी महिलाओं को कराने की सलाह दी जाती है, जिनका परिवार पूरा हो चुका है और जिनकी आगे बच्चा पैदा करने की प्लानिंग नहीं है। फाइब्रॉइड ज्यादा बढ़ चुके हैं और परेशानी ज्यादा है, तो इसे कराने की सलाह देते हैं।
फायदे: गारंटी है फाइब्रॉइड दोबारा नहीं होंगे।
नुकसान : यूटरस निकल जाने के बाद शरीर में हॉर्मोनल असंतुलन हो सकता है। शरीर में खालीपन लग सकता है और कमर दर्द की समस्या भी हो सकती है। डॉ. शारदा जैन के मुताबिक, यूके और यूएस जैसे तमाम देशों में ऐसे नियम बनाए गए हैं जिनके मुताबिक डॉक्टरों को हिस्टरेक्टमी के ऑप्शन पर तभी जाना चाहिए, जब बेहद जरूरी हो। अपने देश में ऐसा कोई नियम नहीं है। लोगों को खुद समझना चाहिए कि इस सर्जरी के लिए काफी अनुभव और स्किल जरूरत होती है इसलिए अपने सर्जन का चयन पूरी सावधानी के साथ करें।
लैप्रोस्कोपिक : मायोमेक्टमी और हिस्टरेक्टमी दोनों ही लैप्रोस्कोपिक (छोटे सुराख से) तरीके से भी की जा सकती हैं। इस प्रक्रिया से सर्जरी करने के बाद ठीक होने का समय कम हो जाता है। लेकिन दोनों ही इनवेसिव तरीके तो हैं ही जिनमें एनैस्थिसिया और सर्जरी के बाद की कुछ जटिलताओं की संभावना हमेशा रहती है।
यूटराइन आर्टरी इम्बोलाइजेशन : इसमें कुछ बेहद छोटे पार्टिकल ब्लड वेसल्स के माध्यम से इंजेक्ट किए जाते हैं। ये पार्टिकल उन आर्टरीज को ब्लॉक कर देते हैं जो फाइब्रॉइड्स को ब्लड की सप्लाई करती हैं। जब फाइब्रॉइड्स को ब्लड की सप्लाई बंद हो जाती है तो वे खुद-ब-खुद सिकुड़ने लगते हैं।
किसके लिए : जिन महिलाओं में फाइब्रॉइड का साइज काफी बड़ा है, उनमेंइस तरीके का इस्तेमाल कर सकते हैं।
फायदे : इस तरीके से इलाज के बाद महिला के अंदर लक्षण खत्म हो जाते हैं।
नुकसान : फाइब्रॉइड खत्म नहीं होते। उनका आकार कम हो जाता है।
हाईफू (नॉन इनवेसिव मैथड) : फिलिप्स का सोनालेव एमआर एचआईएफयू सिस्टम यूटराइन फाइब्रॉइड के इलाज को ज्यादा आसान और सटीक बनाता है। इसमें न तो किसी सर्जरी की जरूरत होती है और न ही कोई रेडिएशन का खतरा।
बिना एनैस्थिसिया के दाग-निशान से मुक्त इलाज मिलता है। इसमें सेफ और फोकस्ड अल्ट्रासाउंड वेव्स की मदद से शरीर के भीतर बीमार टिश्यू को नष्ट कर दिया जाता है। सर्जरी की प्रक्रिया में कुल तीन घंटे का वक्त लगता है। मरीज उसी दिन अस्पताल से घर जा सकता है और वापस काम पर लौटने में भी उसे ज्यादा दिन नहीं लगते। जबकि इलाज के वर्तमान तरीके में सर्जरी की जाती है और काम पर लौटने में 10 दिन तक का वक्त लग जाता है। महिला प्रेग्नेंट है तो यह नहीं की जाती। यह तकनीक मुंबई के दो सेंटरों के अलावा अपोलो (दिल्ली, हैदराबाद और चेन्नै) में उपलब्ध है। इसमें खर्च उतना ही आता है, जितना परंपरागत तरीके से।
सर्जरी का खर्च : सर्जरी में आमतौर पर 50 हजार से एक लाख रुपये तक खर्च आता है, जो निर्भर है इस बात पर कि किस अस्पताल में यह ऑपरेशन करा रहे हैं और कौन सा ऑपरेशन करा रहे हैं।
आयुर्वेद और योग
यूटराइन फाइब्रॉइड के कई मामले ऐसे होते हैं जिन्हें आयुर्वेद और योग की मदद से ठीक किया जा सकता है। डॉक्टर पूरी जांच करने के बाद यह बताते हैं कि उसका फाइब्रॉइड आयुर्वेदिक इलाज से ठीक हो सकता है या उसे सर्जरी के लिए जाना चाहिए।
किसके लिए: अगर फाइब्रॉइड इस स्थिति में है कि उसका इलाज बिना सर्जरी हो सके तो आयुर्वेद में इसके लिए पंचकर्म (पत्र पिंड चिकित्सा) की जाती है। इसमें शरीर का प्यूरिफिकेशन किया जाता है। डेढ़ घंटे की एक सिटिंग होती है और ऐसी कुल मिलाकर 10 सिटिंग लेनी पड़ती हैं। इसके बाद महीने में एक बार बुलाया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान आयुर्वेद दवाएं भी खाने को दी जाती हैं।
खर्च : एक सिटिंग का खर्च 500 से 600 रुपये आता है।
यौगिक क्रियाएं : किसी महिला को यूटराइन फाइब्रॉइड होने का मतलब है कि उसके यौन अंग पूरी तरह स्वस्थ नहीं हैं इसलिए महिला को यौनांग से संबंधित कुछ यौगिक पोश्चर और एक्सरसाइज भी बताई जाती हैं, जिन्हें करने से इसमें फायदा मिलता है। कुछ यौगिक क्रियाएं और प्राणायाम भी हैं जिन्हें किया जा सकता है। इनमें खास हैं प्राण मुद्रा जिसे सुबह-शाम 20-20 मिनट के लिए कर लेना चाहिए। शवासन, गोरक्षासन और जानुशीर्षासन भी काफी फायदेमंद हैं। भ्रामरी और उज्जयी प्राणायाम भी कर सकते हैं। सभी यौगिक क्रियाओं को किसी योग्य योग गुरु से सीखकर ही करना चाहिए।
फायदा : आयुर्वेद और योग से इलाज का एक बड़ा फायदा यह होता है कि एक बार ठीक हो जाने के बाद सिस्ट दोबारा नहीं होता, जबकि सर्जिकल तरीके से इसे रिमूव कराने से सिस्ट दोबारा होने का अंदेशा बना रहता है। इसके अलावा आयुर्वेदिक तरीके से इलाज के दौरान न तो कोई दर्द होता है और न इसका कोई साइड इफेक्ट है।
सीमाएं : बढ़े हुए मामलों में जहां यह तरीका कारगर नहीं होता, वहां इसके बाद सर्जरी का तरीका भी अपनाया जा सकता है।
एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. शारदा जैन, डायरेक्टर, लाइफ केयर सेंटर
डॉ. उर्वशी प्रसाद झा, गाइनिकॉलजिस्ट, फोर्टिस हॉस्पिटल
डॉ. सुशील वत्स, सीनियर होम्योपैथ
योगी डॉ. अमृत राज, योग एंड आयुर्वेद विशेषज्ञ
डॉ. नीलम अग्रवाल, आयुर्वेदाचार्य स्त्री रोग विशेषज्ञ, आरोग्यधाम
सर्जरी का लाइव विडियो
अगर आप यह जानना चाहते हैं कि यूटराइन फाइब्रॉइड के लिए की जाने वाली मायोमेक्टमी सर्जरी कैसी की जाती है, तो ऑग्मेंटेड रिऐलिटी के जरिए जान सकते हैं। ऑग्मेंटेड रिऐलिटी का यह अनुभव और यह अंक आपको कैसा लगा? बताने के लिए हमें मेल करें sundaynbt@gmail.com पर। सब्जेक्ट में लिखें SU-JZ
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Source : http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/11495696.cms
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