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खास हैं ये बच्चे

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हमारे आसपास ऐसे लोग भी हैं, जो शारीरिक या मानसिक रूप से फिट नहीं। उन्हें हिकारत भरी नजर से देखने या उन पर तरस खाने से बेहतर है, उन्हें सक्षम बनाने की कोशिश करना। मानसिक बीमारियां बचपन में ही साफ नज़र आने लगती हैं। लक्षणों पर गौर कर स्पेशल बच्चों की परेशानियों को कम कर उन्हें काबिल बनाया जा सकता है। कैसे, एक्सपर्ट्स से बात करके बता रही हैं गरिमा ढींगड़ा:

सेरेब्रल पाल्सी को दिमागी लकवा भी कहते हैं। सेरेब्रल का मतलब है दिमाग और पाल्सी माने उस हिस्से में कमी आना जिससे बच्चा अपनी बॉडी को हिलाता-डुलाता है। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि दिमाग का जो हिस्सा बच्चे के पैर और हाथ को कंट्रोल करता है और उन्हें हिलाने-डुलाने में मदद करता है, उस पर लकवे का असर बढ़ जाता है। इसमें बच्चे को हाथ और पैरों में दिक्कत ज्यादा होती है।

इसके अलावा बोलने, सुनने, देखने और समझने में भी दिक्कत आ सकती है। ये तमाम दिक्कतें इस बात पर निर्भर करती हैं कि बच्चे के दिमाग का कितना हिस्सा प्रभावित हुआ है। यह स्थिति बच्चे के जन्म से पहले, जन्म के दौरान या बाद भी पैदा हो सकती है। कुछ मामलों में सुनने की क्षमता पर भी असर पड़ता है। उम्र के साथ-साथ दिक्कतें बढ़ती जाती हैं। बैठने में परेशानी होने के कारण ये बच्चे ज्यादातर समय लेटे रहते हैं, जिससे आंखों में भेंगापन और रोशनी कम हो सकती है। ऐसे बच्चों के लिए रोजाना के छोटे-छोटे काम निपटाना भी मुश्किल हो जाता है।

क्या हैं लक्षण?
- सामान्य बच्चों के मुकाबले विकास कम और देर से होना।
- शरीर में अकड़न, बच्चे को गोद में लेने पर अकड़न बढ़ जाती है।
- जन्म के तीन महीने के बाद भी गर्दन न टिका पाना।
- जन्म के आठ महीने बाद भी बिना सहारे बैठ नहीं पाना।
- बच्चे का अपने शरीर पर कंट्रोल न होना।
- रोजाना के काम जैसे कि ब्रश करना, खाना-पीना आदि खुद न कर पाना।

कैसा-कैसा दिमागी लकवा?
कई बार बच्चे के शरीर का एक ही हिस्सा यानी एक ही साइड के पैर और हाथ काम नहीं कर पाते। कुछ मामलों में बच्चे के पैर ठीक होते हैं, लेकिन हाथ काम नहीं कर पाते या हाथ ठीक होते हैं, लेकिन पैरों में परेशानी होती है। इसके अलावा बच्चे को दौरे भी पड़ते हैं। सेरेब्रल पाल्सी को तीन हिस्सों में बांटा गया है:

प्रभावित अंगों के आधार पर
ट्राइप्लीजिया: बच्चे के दो हाथ, एक पांव या दो पांव, एक हाथ पर असर होता है और बस एक हाथ या एक पैर काम कर पाता है।

डाइप्लीजिया: बच्चे के दो हिस्सों पर असर होता है, यानी दोनों पैर या दोनों हाथ या फिर एक पैर और एक हाथ पर असर हो सकता है।

हेमीप्लीजिया: बच्चे के शरीर का एक तरफ का हिस्सा काम नहीं कर पाता।

क्वॉड्रिप्लीजिया: बच्चे के दोनों हाथ-पांव चल नहीं पाते।

पेराप्लीजिया: बच्चे के पैरों पर असर होता है और वह ठीक से चल नहीं पाता।

मेडिकल आधार पर
स्पास्टिक: शरीर में बहुत ज्यादा अकड़न देखी जाती है।

ऐथिटॉइड: बच्चे का शरीर पर कंट्रोल नहीं होता।

एटेसिक: बच्चा हाथ और पैर, दोनों के फंक्शन में संतुलन नहीं बना पाता।

मिक्स्ड: बच्चे में एक साथ कई समस्याएं देखी जाती हैं। मसलन, दिमागी लकवा के साथ-साथ देखने और सुनने में भी दिक्कत होना आदि।

मानसिक आधार पर
माइल्ड: बच्चे का आईक्यू 55-69 होता है। बच्चा पढ़ाई के लिए स्कूल भेजे जा सकता है।

मॉडरेट: बच्चे का आईक्यू 40-54 होता है।

सिवियर: बच्चे का आईक्यू 25-39 होता है।

प्रोफाउंड: बच्चे का आईक्यू 0-24 तक होता है। बच्चा ज्यादातर लेटा रहता है।

बीमारी की वजहें
दिमागी लकवा होने की कई वजहें हो सकती हैं। बच्चे में यह प्रीनेटल यानी डिलिवरी से पहले, पेरीनेटल यानी डिलिवरी के समय और पोस्टनेटल यानी डिलिवरी के बाद।

प्रीनेटल
प्रेग्नेंसी के नौ महीनों में महिला के साथ कोई हादसे होने, बिना वजह दवाएं खाने, गंभीर बुखार या कोई दूसरी बड़ी बीमारी हो जाने से इस गर्भ में पल रहे शिशु को समस्या की आशंका बढ़ती है। इसके अलावा, परिवार में किसी दूसरे को यह समस्या होना, करीबी रिश्तेदारी में शादी, बहुत ज्यादा उम्र में बच्चा होना, बहुत ज्यादा तनाव, नशा करना, ब्लड प्रेशर और शुगर लेवल में बहुत उतार-चढ़ाव, प्रेग्नेंसी के दौरान ब्लीडिंग या डिलिवरी के दौरान इन्फेक्शन होना भी बच्चे के लिए घातक हो सकता है।

पेरीनेटेल
समय से पहले डिलीवरी, फॉरसेप डिलिवरी (चिमटे से बच्चे को बाहर निकालना) और बच्चे का वजन कम होने के अलावा डिलिवरी के वक्त महिला का ब्लड प्रेशर बढ़ना दिमागी लकवा की वजह बन सकता है।

पोस्टनेटल
कई बार खेलते वक्त या किसी हादसे में बच्चे के सिर पर चोट लग जाती है, जिससे दिमाग पर काफी असर पड़ता है। इससे भी बच्चा ऐबनॉर्मल हो सकता है। इसके अलावा, तेज बुखार, टायफायड, पीलिया और दौरे पड़ना भी इस समस्या को जन्म दे सकता है।

कब जाएं डॉक्टर के पास?
जब पैरंट्स को महसूस होने लगे कि उनका बच्चा अपनी उम्र के बच्चों की तरह विकसित नहीं हो रहा है तो उन्हें बच्चों के संपूर्ण विकास के लिए जो परंपरागत मापदंड तय किए गए हैं, उसके आधार पर तय करना चाहिए कि वे डॉक्टर के पास कब जाएं। मसलन:

- तीन महीने के बाद बच्चे का स्माइल करना।

- मां की बातों पर रिएक्शन देना।

- पांच महीने के बाद करवट लेना।

- छह महीने के बाद मां के दूध के अलावा कुछ तरल पदार्थ खाना।

- नौ महीने तक रिढ़ने लगना।

- एक साल तक चलने लगना।

बच्चे में विकास का स्तर इस आधार पर नहीं होता है तो निश्चित तौर पर कहीं कोई समस्या है। जो मापदंड दिए गए है, उनमें अगर कोई एक से डेढ़ की महीना ऊपर होता है तो इंतजार किया जा सकता है, लेकिन इससे ऊपर होने पर ज्यादा देर नहीं करनी चाहिए। जितनी जल्दी डिसेबिलिटी पता चलेगी उतनी जल्दी उस पर काम किया जा सकता है। बाल रोग विशेषज्ञ से जांच करवाने के बाद बच्चे में किस किस्म की दिक्कत है, इसका पता लगाने की कोशिश की जाती है।

जांच और टेस्ट
ऐसे बच्चों की कई लेवल पर जांच की जाती है और कई तरह के टेस्ट होते हैं :

मेडिकल जांच
डॉक्टर जांच करते हैं कि बच्चे में आखिर समस्या कहां है। इसके सारे टेस्ट न्यूरॉलजिस्ट करता है। इसमें सीटी स्कैन, एमआईआर और ईईजी आदि टेस्ट किए जाते हैं। इन टेस्ट के अलावा यह भी देखा जाता है कि कोई जिनेटिक समस्या तो नहीं है या मां को प्रेग्नेंसी या डिलीवरी के समय कोई समस्या तो नहीं आई थी। दरअसल, बच्चे को जितना जल्दी इलाज के लिए ले जाया जाता है, उतना उसमें सुधार होने की गुंजाइश ज्यादा होती है।

आईक्यू और डीक्यू टेस्ट
इसके बाद बच्चे का आईक्यू (इंटेलिजेंस क्वेशेंट) और डीक्यू (डिवेलपमेंट क्वेशेंट) टेस्ट किया जाता है। यह सायकायट्रिस्ट करता है। आईक्यू छह साल से ज्यादा उम्र के बच्चों का किया जाता है, जबकि डीक्यू नवजात से लेकर पांच साल तक के बच्चे का किया जाता है।

बच्चों के विकास के लिए
सभी टेस्ट होने के बाद प्रोग्राम प्लानर और कोऑडिनेटर तय करता है कि बच्चे के विकास के लिए क्या-क्या जरूरी है। बच्चे का हर स्तर पर आकलन करने के बाद प्रोग्राम प्लानर उसकी जरूरत के आधार पर काम शुरू करता है। प्रोग्राम प्लानर की टीम में कई लोग शामिल होते हैं, जो अपने-अपने स्तर पर काम करते हैं। ये हैं :

ऑक्युपेशनल थेरपिस्ट: ऑक्युपेशनल थेरपी के जरिए बच्चे को अपनी रोजमर्रा की जिंदगी को बेहतर बनाना सिखाया जाता है। ऐसे बच्चों की पकड़ने की क्षमता बहुत कम होती है, इसलिए इस थेरपी में बच्चे के हाथों की एक्सरसाइज कराई जाती है। हाथों में टेढ़ेपन को कम करने की कोशिश की जाती है।

फिजियोथेरपिस्ट: बच्चे की मसल्स में अकड़न के कारण बैठने और पैरों में टेढ़ापन होने से चलने में दिक्कत होती है। फिजियोथेरपिस्ट एक्सरसाइज के जरिए बच्चे के शरीर में लचक लाने और अकड़न कम करने की कोशिश करता है, इसलिए बच्चे को ऐसी एक्सरसाइज कराई जाती हैं, जिनसे उसकी मसल्स मजबूत हों। इसमें बच्चे को खड़ा करने के लिए रोलेटर (चलने में मदद करने वाला यंत्र) आदि चलाना भी सिखाया जाता है।

स्पीच थेरपिस्ट: बच्चे को बोलने में दिक्कत होती है, तो स्पीच थेरपिस्ट उसे स्पीच थेरपी सिखाता है, ताकि वह अपनी बात दूसरों तक पहुंचा सके। इसमें विभिन्न उपकरणों के जरिए बोलने की प्रैक्टिस कराई जाती है।

स्पेशल एजुकेटर: चूंकि ये बच्चे अपनी उम्र के बच्चों के मुकाबले हर काम में पीछे होते हैं और रोजाना के छोटे-छोटे काम करने में उन्हें दिक्कत होती है इसलिए इनके प्लान में ऐसी चीजों को शामिल किया जाता है, मसलन ब्रश करना, खुद से खाना खाना आदि। स्पेशल एजुकेटर बच्चे को रोज प्रैक्टिस कराता है और पैरंट्स को भी समझाता है कि बच्चे को ब्रश कैसे कराना चाहिए।

कहां कराएं पढ़ाई?
माइल्ड कैटिगरी के बच्चे तो रुटीन स्कूल में पढ़ाई कर सकते हैं लेकिन इससे मॉडरेट और सिवियर कैटिगरी के बच्चों को इनकल्सिव यानी समायोजन स्कूल में डाला जाता है। यहां वह अपने समय के हिसाब से पढ़ाई कर सकते हैं। इन स्कूलों में नॉर्मल और स्पेशल, दोनों तरह के बच्चे एक साथ पढ़ते हैं। यहां स्पेशल बच्चों को अच्छा माहौल मिलता है। अगर बच्चा बहुत पिछड़ रहा है तो आठवीं पास करने के बाद उसे नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ ओपन लर्निंग से दसवीं और बारहवीं करा सकते हैं। इसके अलावा इनकल्सिव स्कूलों में स्पेशल सेशन भी होते हैं।

अगर बच्चा रुटीन क्लास में तालमेल नहीं बिठा पाता तो उसे कुछ समय के लिए स्पेशल सेशन में डाल दिया जाता है। वहां उसकी पढ़ाई में सुधार होते ही उसे रुटीन क्लास में डाल दिया जाता है।

कुछ स्कूल जहां दिला सकते हैं दाखिला
वेस्ट जोन
ऑक्योपेशनल थैरेपी होम फॉर चिल्ड्रेन
34 कोटला रोड, माता सुंदरी कॉलेज के पास
नई दिल्ली-110002

इनसेप्रेशन सेंटर, कम्युनिटी फेसिलिटी कॉम्प्लेक्स स्लमस ऐंड जेजे डिपार्टमेंट
फर्स्ट फ्लोर,12 ब्लॉक, तिलक नगर, नई दिल्ली-110018
फोन- 011- 25613797 / 25613798

सेंट्रल जोन
ब्रदरहुड
1206, सूर्या किरण बिल्डिंग,
19 के जी मार्ग,
नई दिल्ली-110001
फोन-09811012065

स्कूल ऑफ मेंटली रिटार्डिड चिल्ड्रेन
एस. एच. आर. सी., जी. एल. एन. एस. कॉम्प्लेक्स,
फर्स्ट फ्लोर, फिरोजशाह कोटला, दिल्ली गेट

सेंट थॉमस
मंदिर मार्ग, नई दिल्ली

संस्कृति स्कूल
सन मार्तेन मार्ग, चाणक्य पुरी
नई दिल्ली-21

नार्थ जोन
अनुकरण
49, सेक्टर-2
रोहिणी, पॉकेट-3
नई दिल्ली-110085

प्रभात स्कूल फॉर मेंटली हैंडीकैप चिल्ड्रेन
बी-930, शास्त्री नगर,
नई दिल्ली

साउथ जोन
अक्षय प्रतिष्ठान
सेक्टर-डी, पॉकेट-3
वंसत कुंज
संपर्क -26124923, 26132565

लक्ष्मण पब्लिक स्कूल
हौज खास एन्क्लेव
नई दिल्ली-16

वंसत वैली स्कूल
सी-ब्लॉक वसंत कुंज,
नई दिल्ली-10

द श्रीमान स्कूल
डी-3, वसंत विहार,
नई दिल्ली-19

साधु वासवानी इंटरनशनैल स्कूल फॉर गर्ल्स
सेकेंड स्ट्रीट, शांति निकेतन,

वोकेशनल ट्रेनिंग
इन्हीं स्कूलों में पढ़ाई के साथ-साथ इन बच्चों को वोकेशनल ट्रेनिंग दी जाती है ताकि ये अपने पैरों पर खड़े हो सकें। आमतौर पर इन्हें मोमबत्ती बनाने, जूलरी बनाने, बेकरी चलाने आदि की ट्रेनिंग दी जाती है।

स्पेशल बच्चों के अधिकार
कानून में स्पेशल (डिसेबल्ड) बच्चों के लिए काफी प्रावधान किए गए हैं। ऐसे बच्चों के 18 साल का होने तक पढ़ाई का खर्चा सरकार उठाती है। स्कूल में तीन फीसदी सीटें दिमागी लकवा से पीड़ित बच्चों के लिए रिजर्व हैं। इन बच्चों के लिए होम शेल्टर भी उपलब्ध कराए जाते हैं।

नैशनल ट्रस्ट एक्ट
इस एक्ट के तहत मुख्य तौर पर चार अक्षमताओं को रखा गया है- सेरेब्रल पाल्सी, मेंटल रिटारडेशन, ऑटिज्म और मल्टिपल डिफॉर्मिटी। इस एक्ट के जरिए ऐसे बच्चों की मदद की जाती है, जिन्हें पैरंट्स अपने पास नहीं रख सकते। उन बच्चों के लिए गार्डियन होम्स का इंतजाम किया जाता है और एक गार्डियन भी उपलब्ध कराया जाता है, जो बच्चे की देखभाल करता है।

आर्थिक सुविधाएं
ऐसे बच्चों को पेंशन की सुविधा भी दी जाती है। केंद्र सरकार की इस स्कीम में लोकल एमएलए, काउंसलर यानी पार्षद और एमपी पेंशन की रकम उपलब्ध कराते हैं। इस सुविधा को पाने के लिए चिल्ड्रन विद डिसऐबिलिटी फॉर्म की सभी शर्तों को पूरा करना पड़ता है। इस पूरे प्रोसेस में छह महीने का वक्त लग जाता है। इस पेंशन की रकम एक हजार रुपये होती है। पीड़ित बच्चे को जिंदगी भर यह सुविधा मिलती है।

इसके अलावा, रेल टिकट पर ऐसे बच्चों को 75 फीसदी तक की छूट मिलती है। अगर बच्चा सिविअर और प्रोफाउंड कैटिगरी का है, तो बच्चे के सहायक को भी 25 फीसदी की छूट दी जाती है। इस छूट को पाने के लिए सभी सरकारी अस्पतालों और नैशनल इंस्टिट्यूट फॉर मेंटली हैंडिकैप्ड (एनआईएमएच), लाजपत नगर और नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ फिजिकली हैंडिकैप्ड (एनआईएफएच), आईटीओ से सर्टिफिकेट बनवा सकते हैं। एनआईएमएच में मानसिक रूप से विकलांग बच्चों को और एनआईएफएच में शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों को सर्टिफिकेट मिलता है। यह सर्टिफिकेट पांच साल के लिए इश्यू किया जाता है। इसके बाद इसे रिन्यू करवाना पड़ता है। इसे दिखाकर रेलवे टिकट पर छूट मिलती है।

मेंटल रिटारडेशन
मेंटल रिटारडेशन यानी मानसिक मंदता में बच्चे के दिमाग पर काफी गहरा असर पड़ता है। ऐसे बच्चे दूसरे बच्चों के मुकाबले बहुत धीमी रफ्तार से आगे बढ़ते हैं। आजकल इस शब्द की बजाय इंटेलैक्चुअली डिसएबिलिटी, डिफरेंटली ऐबल और डेवलेपमेंट डिले शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे बच्चों के दिमाग का विकास काफी कम होता है, इसलिए रोजमर्रा की चीजों को समझने में उन्हें समय लगता है।

प्रमुख लक्षण
- सामान्य बच्चों के मुकाबले विकास बहुत धीमा होना।

- रोजाना का काम करने में बहुत दिक्कत होना।

- किसी भी काम में ध्यान नहीं लगा पाना, न ही टिककर बैठ पाना।

- अपनी उम्र के बच्चों की बजाय कम उम्र के बच्चों के साथ वक्त बिताना।

सायकॉलजी और मेडिकल, दोनों आधार पर तय किया जाता है कि पीड़ित बच्चा दूसरे बच्चों के मुकाबले कितना पीछे है और कितनी जल्दी रिकवरी कर आगे बढ़ सकता है। इसमें माइल्ड, मॉडरेट, सिविअर और प्रोफाउंड कैटिगरी होती हैं। बच्चे के आईक्यू लेवल को देखते हुए कैटिगरी तय की जाती है।

ऑटिज्म
ऑटिज्म को स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर कहते हैं। आमतौर पर ऐसे बच्चे में बातचीत और कल्पना की कमी पाई जाती है। इससे पीड़ित बच्चे को अपने आसपास की चीजों को समझने और उस पर प्रतिक्रिया देने में दिक्कत होती है। उसका बर्ताव दूसरे बच्चों की तुलना में अलग होता है। बच्चे को अपनी बात कहने के लिए सही शब्द नहीं मिलते। कई बार सही शब्द की तलाश में एक ही वाक्य को दोहराता रहता है। हर शब्द साफ सुनने के बावजूद बच्चा उसका अर्थ नहीं समझ पाता। बच्चे के मन के भाव बहुत जल्दी बदलते रहते हैं। जो बच्चा अभी बहुत खुश दिख रहा था, वही थोड़ी देर में बहुत दुखी दिखाई देगा। वह मारपीट भी कर सकता है या फिर जोर-जोर से रोने लगेगा। अपनी बात को व्यक्त न कर पाने के कारण वह जल्दी खीज जाता है।

- बच्चा देर से बोलना सीखना।

- किसी से ज्यादा बातचीत करना पसंद न करना।

- एक ही शब्द या वाक्य को बार-बार दोहराना।

- किसी से मिलना-जुलना पसंद न करना।

- आंख मिलाकर बात नहीं करता।

- हमेशा कुछ-न-कुछ करते रहने, मसलन हाथ हिलाते रहना, कूदते-फांदते रहना, एड़ी पर चलना, कुछ आवाजों को पसंद न करना आदि।

मल्टिपल डिफॉर्मिटी
बच्चे में अगर एक से ज्यादा डिफॉर्मिटी (अपंगता) हो तो मल्टिपल डिफॉर्मिटी कहा जाता है। इसमें बच्चे में दिमागी लकवे के साथ-साथ मेंटल रिटारडेशन या ऑटिज्म हो सकता है। ऐसे बच्चे को संभालना बहुत मुश्किल होता है। किसी के भी सामने अपने प्राइवेट पार्ट्स को छूना, किसी से भी गलत बर्ताव करना, सड़क पर हाथ छुड़ाकर कहीं भी चले जाना- ऐसी हरकतें करते रहते हैं। ऐसे बच्चे को अपने रोजाना के काम करने लायक बनाने की कोशिश की जाती है।

ऐसे बच्चों में एक के साथ दूसरे विकार भी नजर आते हैं। मसलन अगर बच्चा दिमागी लकवे से पीड़ित है तो बढ़ती उम्र के साथ उसमें मेंटल रिटारडेशन के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। सभी विकारों के लक्षण ऊपर दिए गए हैं।

पैरंट्स की भूमिका
जिन पैरंट्स के पास स्पेशल चाइल्ड हैं, उन्हें बहुत-सी बातों का ध्यान रखना चाहिए। सबसे पहले वे स्वीकार कर लें कि उनके बच्चे में विकार या कमी है। किसी भी मां-बाप के लिए यह स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन ऐसा करने से समस्याएं काफी कम हो जाती हैं।

- जिद सभी बच्चे करते हैं लेकिन ये बच्चे ज्यादा जिद करते हैं क्योंकि इन्हें अपने नफा-नुकसान की समझ नहीं होती। उनमें यह जिद्दीपन आता है क्योंकि पैरंटस को उनसे काफी उम्मीदें होती हैं, जबकि उन्हें अपना रोजाना का छोटा-मोटा काम करने में भी दिक्कत होती है।

- बच्चे को छोटा समझकर हर समय डांटने की बजाय उसके दोस्त बनें। जब बच्चे की दिक्कतों के बारे में जानकारी हो जाए तो उससे खूब प्यार करें और उसके सबसे अच्छे दोस्त बनने की कोशिश करें। ऐसे बच्चों का सोशल सर्कल बहुत कम होता है और इनके दोस्तों की लिस्ट भी ज्यादा नहीं होती इसलिए इन्हें दोस्त की कमी कभी न खलने दें।

- इन बच्चों में बर्ताव से जुड़ी काफी समस्याएं पाई जाती हैं। इन समस्याओं को दूर करने के लिए इन्हें प्यार से समझाएं। उसे खुद करके दिखाएं कि दूसरों के साथ बर्ताव कैसे करना चाहिए। वह दूसरे बच्चों को अच्छा बर्ताव करता देखकर जल्दी सीख पाएगा इसलिए दूसरे बच्चे कैसा बर्ताव करते हैं, यह उसे दिखाएं।

- एक समय में एक ही चीज पर फोकस करें। ये बच्चे धीरे-धीरे चीजों को समझते हैं, इसलिए इनके लिए एक लक्ष्य तय कर उस पर रेग्युलर काम कराएं। मसलन किसी तय जगह पर कैसा बर्ताव करना है आदि। एक चीज सिखाने के बाद उसमें बदलाव करने की कोशिश न करें। इससे बच्चे को समझने और करने में दिक्कत होती है।

- छोटे-छोटे लक्ष्य तैयार करें। डॉक्टर की सलाह से बच्चे के लिए छोटे-छोटे लक्ष्य तय करें। इन लक्ष्यों में रोजाना के छोटे-छोटे कामों को शामिल किया जाना चाहिए, जैसे ब्रश करना सिखाना, खाना खाना सिखाना आदि।

एक्सर्पट्स पैनल
डॉ. प्रवीण सुमन, हेड ऑफ डिवेलपमेंट डिपार्टमेंट, सर गंगाराम हॉस्पिटल
डॉ. ज्ञानेंद्र सिंह, असोशिएट प्रफेसर, पीडियाट्रिक (बाल रोग विशेषज्ञ), मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज
डॉ. मृदुल गर्ग, कोशिश स्कूल 
Source :
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/10026729.cms

Comments

बहुत उपयोगी जानकारी ...
आभार!
Sadhana Vaid said…
बहुत ही ज्ञानवर्धक एवं उपयोगी आलेख ! इसे सभीको अनिवार्य रूप से पढ़ना चाहिये ! आभार !
Suresh kumar said…
बहुत उपयोगी जानकारी ...
आभार!

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