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युद्ध -लुईगी पिरांदेलो (मां-बेटे और बाप के ज़बर्दस्त तूफ़ानी जज़्बात का अनोखा बयान)

लुईगी पिरांदेलो
जन्म : 28 जून 1867 को सिसली में। साहित्य के लिए 1934 का नोबेल पुरस्कार। ‘दि ओल्ड एंड द यंग’, ‘हेनरी कश्’, ‘एज यू डिजायर मी’ आदि प्रमुख रचनाएं।
मृत्यु: 10 दिसंबर 1936
रात की गाड़ी (एक्सप्रेस) से रोम से चलने वाले मुसाफिर फैब्रियानो के छोटे-से स्टेशन पर सुबह होने तक रुके थे, ताकि उस छोटी और पुरानी फैशन वाली लोकल से आगे का सफर जारी रख सकें, जो सुल्मोना में मुख्य लाइन से मिलती थी।
भोर में, दूसरे दर्जे के भरे हुए और धुआएं से डिब्बे में, जिसमें पांच लोग पहले से ही रात बिता चुके थे, गहरे शोक में डूबी एक भारी-भरकम महिला अंदर आई, जो करीब-करीब एक आकारविहीन गठरी की तरह थी। उसके पीछे हांफता और कराहता एक दुबला शख्स था, पतला और कमजोर-सा। उसका चेहरा बेजान सफेद था, उसकी आंखें छोटी और चमकीली थीं और लजालु और बेचैन दिख रही थीं। आखिरकार एक सीट पा लेने के बाद उसने विनम्रतापूर्वक मुसाफिरों को धन्यवाद दिया, जिन्होंने उसकी पत्नी की मदद की और उसके लिए जगह बनाई। इसके बाद उसने महिला की तरफ घूम कर उसके कोट का कॉलर नीचे करने की कोशिश की और विनम्रतापूर्वक पूछा:
‘तुम ठीक तो हो न, प्रिय?’
पत्नी ने जवाब देने के बावजूद अपना कॉलर फिर से आंखों तक उठा लिया, ताकि चेहरे को छिपा सके।
‘घिनौनी दुनिया।’ पति एक उदास मुस्कुराहट के साथ बुदबुदाया।
और उसने अपना यह कर्त्तव्य महसूस किया कि वह अपने सहयात्रियों को बताये कि यह बेचारी महिला युद्ध को लेकर गमजदा थी, जो उससे उसके इकलौते बेटे को दूर ले जा रहा था। इकलौता बेटा, एक बीस साल का लड़का, जिस पर उन दोनों ने अपनी पूरी जिंदगी न्योछावर की थी। यहां तक कि वह सुल्मोना का अपना घर छोड़ रहे थे, ताकि उसके पास रोम जा सकें, जहां उसे एक विद्यार्थी के बतौर जाना था, जिसके बाद उसे स्वयंसेवक के रूप में युद्ध में काम करने की अनुमति इस आश्वासन के साथ दी गई थी कि कम से कम छह महीने तक उसे मोर्चे पर नहीं भेजा जाएगा। और अब, अचानक उन्हें एक तार मिला था, जिसमें लिखा था कि वह तीन दिनों के अंदर रवाना होने वाला है और उन्हें कहा गया था कि वे आएं और उसे विदा करें। बड़े कोट के भीतर महिला छटपटा रही थी। उस वक्त वह किसी जंगली जानवर की तरह गुर्रा रही थी। वह महसूस कर रही थी कि ये सारी बातें उन लोगों की ओर से सहानुभूति की एक छाया तक उत्पन्न नहीं कर सकीं, जो कमोबेश उसी दशा में थे। उनमें से एक ने कहा, जो खासतौर पर ध्यान देकर सुन रहा था:
‘आपको भगवान को धन्यवाद देना चाहिए कि आपका बेटा अब मोर्चे के लिए रवाना हो रहा है। मेरा तो युद्ध के पहले दिन ही भेज दिया गया था। वह पहले ही दो बार जख्मी होकर लौटा और फिर से मोर्चे पर भेज दिया गया है।’
दूसरे मुसाफिर ने कहा, ‘और पता है? मेरे दो बेटे और तीन भतीजे मोर्चे पर हैं।’
‘हो सकते हैं, लेकिन मेरे मामले में यह हमारा इकलौता बेटा है।’ पति ने कहा।
‘इससे क्या अंतर पड़ता है? आप काफी अधिक ध्यान देकर अपने इकलौते बेटे को बिगाड़ सकते हैं। लेकिन आप उसे अपने अन्य बच्चों की बजाय अधिक प्यार नहीं कर सकते, यदि आपके हों तो। पिता का प्यार रोटी की तरह नहीं है, जिसे टुकड़ों में तोड़ा जा सके और बच्चों के बीच बराबर हिस्से में बांटा जा सके। कोई पिता अपना सारा प्यार अपने हरेक बच्चे को बिना किसी भेदभाव के देता है, चाहे वे एक हों या दस, और यदि मैं अब अपने दो बेटों के लिए दु:ख उठा रहा हूं तो मैं उनमें से हरेक के लिए आधा-आधा नहीं, बल्कि दोगुना दु:ख उठा रहा हूं।..’
‘सही..सही..’ परेशान पति ने उसांस भरी, ‘लेकिन जरा सोचिए, (वैसे हम सभी को उम्मीद है कि आपके साथ ऐसा कभी नहीं होगा) एक पिता के दो बेटे मोर्चे पर हैं और वह उनमें से एक को गंवा देता है तो भी उसे सांत्वना देने के लिए एक बचा है..जबकि..’
‘हां,’ दूसरे ने जवाब दिया, और कहा, ‘उसे सांत्वना देने के लिए एक बेटा बचा, लेकिन जबकि किसी इकलौते बेटे के बाप के मामले में यदि बेटा मरता है तो बाप भी मर सकता है और अपने दु:खों का अंत कर सकता है। दोनों में से कौन-सी स्थिति बदतर है? क्या आप नहीं देखते कि मेरा मामला आप लोगों की बनिस्बत कितना बदतर है?’
‘बकवास’, एक अन्य मुसाफिर ने हस्तक्षेप किया, जो मोटा और लाल चेहरे वाला था और जिसकी पीली भूरी आंखों में रक्तिम ललाई थी। वह हांफ रहा था। उसकी उभरी हुई आंखों से किसी अनियंत्रित जीवंतता की आंतरिक हिंसा निकलती-सी मालूम पड़ती थी, जिसे उसका कमजोर शरीर बमुश्किल रख पाता।
‘बकवास’, उसने दुहराया। हाथों से अपना मुंह ढंकने की कोशिश की, ताकि अपने गायब अगले दो दांतों को छिपा सके। ‘बकवास। क्या हम अपने लाभ के लिए अपने बच्चों को जीवन देते हैं?’
अन्य मुसाफिरों ने दु:ख में उस पर नजरें गड़ा दीं। एक, जिसका बेटा युद्ध के पहले दिन से ही मोर्चे पर था, ने उसांस भरी , ‘हमारे बच्चे हमारे नहीं हैं, वे देश के हैं..’
‘अंट-शंट’ मोटे मुसाफिर ने प्रतिकार किया, ‘क्या हम देश के बारे में सोचते हैं, जब अपने बच्चों को जीवन देते हैं? हमारे बेटे पैदा होते हैं क्योंकि.. अच्छा, क्योंकि उन्हें पैदा होना ही है और जब वे जीवन में आते हैं तो उनके साथ वे अपना जीवन लेते हैं। यह सत्य है। हम उनके हैं, पर वे कभी हमारे नहीं हैं। और जब वे बीस तक (बीस साल की उम्र तक) पहुंचते हैं तो वे बिल्कुल वही होते हैं, जो हम अपनी उस उम्र में थे। हमारे भी एक पिता थे और एक मां थी, बल्कि इनकी तरह कई अन्य चीजें भी थीं.. लड़कियां, सिगरेट, भ्रम, नये रिश्ते.. और देश, बेशक। जब हम बीस के थे - यहां तक कि मां और पिता ने कहा था नहीं। अब हमारी उम्र में हमारे देश के प्रति प्यार अभी तक महान है, नि:संदेह, बल्कि यह हमारे बच्चों के प्रति हमारे प्रेम से अधिक मजबूत है। क्या यहां हममें से कोई है, जो कर सका तो खुशी-खुशी मोर्चे पर अपने बेटे की जगह नहीं लेगा?’
चारों तरफ चुप्पी छा गयी। हर कोई सहमति का संकेत दे रहा था।
‘क्यों-’ मोटे आदमी ने कहना जारी रखा, ‘क्या हमें अपने बच्चों की भावनाओं को नहीं समझना चाहिए, जब वे बीस के हैं? क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि अपनी उम्र में वे अपने देश के लिए प्यार को समझते हैं। (मैं भले बच्चों की बात कर रहा हूं, निश्चय ही), यहां तक कि हमारे प्रति प्यार से भी ऊंचा/महान। क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि ऐसा होना चाहिए। आखिरकार वे हमें ऐसे बूढ़ों की तरह ही तो देखते हैं, जो अब ज्यादा घूमफिर नहीं सकते और घर में ही रहते हैं? यदि देश का अस्तित्व है, यदि देश रोटी की तरह एक स्वाभाविक जरूरत है, जिसे न खाने से हम मर जाएंगे तो किसी को उसकी रक्षा करने भी तो जरूर जाना चाहिए। और हमारे बेटे जाते हैं, जब वे बीस के होते हैं और वे आंसू नहीं चाहते, क्योंकि यदि वे मरते हैं तो वे खुश और अनुप्राणित होकर मरते हैं। (जाहिर है, मैं भले लड़कों की बात कर रहा हूं) अब यदि कोई जवान और खुश रहते हुए मर जाता है, जीवन के कुरूप हिस्से को भुगते बिना, उसके उबाऊपन को झेले बिना, उसकी नीचताओं, असलियत की कड़वाहट से गुजरे बिना.. हम उसके लिए और अधिक क्या कह सकते हैं? हरके को चिल्लाना बंद कर देना चाहिए, हरेक को हंसना चाहिए, जैसा मैं करता हूं.. या कम से कम भगवान को धन्यवाद देना चाहिए- जैसा मैं करता हूं- क्योंकि मेरे बेटे ने मरने से पहले मुझे एक संदेश भेजा था, जिसमें उसने कहा था कि वह संतुष्ट होकर मर रहा है कि जैसा उसने चाहा था उस तरह से उसने सवरेत्तम तरीके से अपने जीवन के अंत को पाया। यही कारण है कि, जैसा आप देखते हैं, मैं कभी गमगीन नहीं हुआ।’ उसने अपने हल्के कोट को झटका, मानो उसे दिखाना चाहता हो। उसके सुरमई होंठ उसके गायब दांतों के ऊपर थरथरा रहे थे, उसकी आंखें गीली और गतिहीन हो गयी थीं और पल भर बाद उसने एक कानफाड़ हंसी के साथ बात पूरी की, जो एक अच्छी भली सिसकी हो सकती थी।
‘बिल्कुल. सचमुच..’अन्य सहमत हुए।
महिला जो एक कोने में अपने कोट के भीतर गठरी बनी पड़ी थी, बैठ गयी थी और सुन रही थी- विगत तीन महीनों से-अपने पति और अपने मित्रों के शब्दों में से कुछ ऐसा तलाश करने की कोशिश कर रही थी, जो उसे गहरे, दुख में सांत्वना पहुंचा सके। कुछ ऐसा, जो उसे दिखा सके कि एक मां को अपने बेटे को न सिर्फ मौत के लिए, बल्कि एक संभावित खतरनाक जीवन के लिए भेजने से इनकार कर देना चाहिए। अभी तक ढेर सारी बातें जो कहीं गयीं, उनमें से वह एक शब्द भी नहीं पा सकी थी।.. और उसका दुख अपेक्षाकृत बड़ा था कि किसी ने उसकी भावनाओं को साझा नहीं किया, जैसा कि उसने सोचा।
लेकिन अब मुसाफिरों के शब्दों ने उसे चकित और लगभग हक्का-बक्का कर दिया। उसने अचानक महसूस किया कि वे दूसरे नहीं थे जो गलत थे, और जो उसे नहीं समझ सके, बल्कि वह खुद थी, जो उन माताओं-पिताओं की ऊंचाई तक नहीं उठ सकी,बिना चिल्लाए, न सिर्फ अपने बेटों के प्रस्थान के लिए, बल्कि उनकी मौत तक के लिए खुद का त्याग करने की इच्छा रखते थे।
उसने अपना सिर उठाया। वह अपने कोने से ऊपर की ओर मुड़ी और पूरे ध्यान से उन विकरणों को सुनने की कोशिश की, जिसे मोटा आदमी अपने साथियों को सुना रहा था। वह बता रहा था कि उसका बेटा किस तरह अपने राजा और अपने देश के लिए एक नायक की मानिंद खेल रहा, खुश और बिना किसी पछतावे के। उसे लगा कि वह एक ऐसी दुनिया में आ गयी है, जिसकी उसने कभी कल्पना नहीं की थी, एक दुनिया जो उससे काफी हद तक अनजानी थी और वह यह सुन कर काफी प्रसन्न हुई कि हर कोई उस बहादुर पिता को बधाई देने में शामिल हो रहा है, जिसने ऐसी किस्सागोई के अंदाज में अपने बच्चों की मौत के बारे में बताया।
तभी अचानक जैसे उसने कुछ नहीं सुना हो कि क्या कहा गया था और जैसे वह किसी सपने से जगी हो, वह उस बूढ़े आदमी की ओर मुड़ी और पूछा.
‘तब.. क्या आपका बेटा सचमुच मर गया?’
हर किसी ने उस पर अपनी नजरें गड़ा दीं। बूढ़ा आदमी भी मुड़ कर उसे देखने लगा, उसने अपनी बड़ी, उभरी हुई, खौफनाक, पनीली हल्की भूरी आंखें टिका दीं। कुछ पल के लिए उसने जवाब देने की कोशिश की, लेकिन शब्दों ने उसे असफल कर दिया। वह उसे देखता रहा, देखता रहा, मानो इसी समय-जब यह मूर्खतापूर्ण और असंगत सवाल पूछा गया-उसे अचानक कम से कम यह एहसास हुआ कि उसका बेटा सचमुच मर चुका है- हमेशा के लिए चला गया है- हमेशा के लिए। उसका चेहरा सिकुड़ गया, खौफनाक रूप से विकृत हो गया।
इसके बाद उसने जल्दबाजी में अपने पॉकेट से रूमाल निकाला और हर किसी को विस्मित करता हुआ यंत्रणापूर्ण, हृदय विदारक और बेसंभाल चीखों में फट पड़ा।









(अनुवाद: धर्मेद्र सुशांत)
 Source : http://www.livehindustan.com/news/tayaarinews/tayaarinews/article1-story-67-67-180861.html

Comments

Vivek Jain said…
युद्ध अपने साथ केअवल दुख ले कर आता है, बहुत ही मार्मिक कहानी,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
Sadhana Vaid said…
हृदय विदारक किन्तु प्रभावशाली कहानी ! पढ़ कर मन विचलित हो गया ! बहुत बढ़िया !

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