तमाम प्रयासों के बावजूद भारत में जच्चा-बच्चा की मृत्यु दर में खास सुधार नहीं आ पा रहा है। इस दिशा में वाकई बहुत काम किए जाने की जरूरत है। कानपुर के आसपास की बस्तियों में श्रमिक भारती नाम की एक संस्था इस मामले में बहुत अच्छा काम कर रही है। संजीवनी नाम की इस परियोजना में इस बात पर जोर दिया गया कि गर्भवती महिलाओं के इलाज में गांव के ही संसाधनों का अधिक से अधिक इस्तेमाल हो। अस्पताल ले जाने के लिए यातायात से लेकर धन की व्यवस्था तक।
गांव में जिन व्यक्तियों के पास वाहन उपलब्ध था, उन्हें विशेष तौर पर मातृत्व सुरक्षा अभियान से जोड़ा गया। उन्हें बताया गया कि मातृ रक्षा जनहित का सबसे बड़ा कार्य है। गांव में चंदा एकत्र कर एक कोष बनाया गया, जिससे जरूरतमंद जच्चा के इलाज की व्यवस्था की गई। गांवों में ‘संजीवनी सहेलियों’ का चयन किया गया, जिन्हें मातृत्व सुरक्षा की ट्रेनिंग दी गई।
गर्भवती महिलाओं वाले परिवारों में संजीवनी सहेलियों ने ज्यादा बातचीत की। निर्धन परिवारों को बताया गया कि किन सस्ते पर पौष्टिक खाद्यान्नों से महिलाओं की जरूरतें पूरी हो सकती हैं, जो गांव में आसानी से उपलब्ध हों। गांव में उपलब्ध मौसमी फलों में अमरूद और बेर पर विशेष ध्यान दिया गया, जो सस्ते व सहज उपलब्ध थे। इसी तरह भुने हुए चने और गुड़ को उच्च प्राथमिकता दी गई। हरे पान के पत्ते पर कुछ चूना लगाकर देने से कैल्शियम की पूर्ति कुछ हद तक हो सकती है, यह बताया गया। प्रयास यह रहा कि महंगे व अव्यावहारिक पोषण के बारे में बताने के स्थान पर सहज ग्रामीण पोषण पर ध्यान दिया जाए।
महिलाओं को आयरन टैबलेट व टीकाकरण के महत्व के बारे में बताया ही नहीं गया, बल्कि संजीवनी के कार्यकर्ता बार-बार आकर पूछते थे कि आयरन की गोली खाई कि नहीं? क्षेत्र की दाइयों व रजिस्टर्ड डॉक्टरों (आरएमपी) को प्रशिक्षण दिया गया कि अमूमन किन समस्याओं के कारण जच्चा की मृत्यु होती है व इसे कैसे रोका जा सकता है। एएनएम़, स्वास्थ्यकर्मी, कार्यकर्ताओं, आंगनबाड़ी, पंचायत प्रतिनिधियों को इस अभियान से जोड़ा गया। इंजेक्शन, दवाओं के उपयोग से अलग व्यावहारिक ज्ञान का प्रसार भी गांवों में किया गया।
पहले यह कार्यक्रम मात्र 30 गांवों तक सीमित था, पर जब इसमें उल्लेखनीय सफलता मिली, तो इसे मेथा और रसूलाबाद प्रखंडों (रमाबाई या कानपुर देहात जिला) की 120 पंचायतों में भी चलाया किया गया। इस विस्तार के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं था। अत: ग्रामीण महिलाओं को सहेली संजीवनी की भूमिका निभाने के लिए बिना किसी मानदेय के ही वॉलंटीयर बनना पड़ा। परियोजना के मूल्यांकन से पता चला कि मातृ मृत्यु दर में उल्लेखनीय कमी आई है। यही नहीं, इसके जरिये भ्रूण हत्या रोकने का भी सफल अभियान चलाया गया है। इन अनुभवों का
साभार हिन्दुस्तान :
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