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माँ,मेरी माँ,


माँ,मेरी माँ,
   खुद को क्यों न देखती हो?
बच्चे कुछ बन जाये मेरे,
   हरदम ये ही  सोचती हो.

बच्चे खेलें तो तुम खुश हो,
    पढ़ते देखके व्यस्त काम में,
बच्चे सोते तब भी जगकर,
    खोयी हो बस इस ख्याल में,
चैन से बच्चे सोये मेरे इसीलिए तुम जगती हो!
बच्चे कुछ बन जाये मेरे हरदम ये ही सोचती हो.

बच्चे जो फरमाइश करते,
              आगे बढ़ पूरी करती.
अपने खाने से पहले तुम ,
            बच्चों का हो पेट भरती .
बच्चे पर कोई आंच जो आये,आगे बढ़कर झेलती हो!
बच्चे कुछ बन जाएँ मेरे हरदम ये ही सोचती हो.

बच्चे केवल खुद की सोचें,
        तुम बस उनको देखती हो.
तुम्हारे लिए कुछ करें न करें,
       तुम उनका सब करती हो.
अच्छे  जीवन के सपने तुम,बच्चों के लिए बुनती हो!
बच्चे कुछ बन जाये मेरे,हरदम ये ही सोचती हो.
                         शालिनी कौशिक 

Comments

Shikha Kaushik said…
bahut sundar bhavpoorn rachna.badhai
DR. ANWER JAMAL said…
Nice post.
Dil ko chhoo gayee.
अपने खाने से पहले तुम ,
बच्चों का हो पेट भरती .
शालिनी जी यही तो है माँ जो बलिदान के कारनामो से भरी पड़ी है उसके प्यार और ममता के बारे में जितना भी लिखा जाये बहुत कम है
सुन्दर रचना
शुक्ल भ्रमर ५

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