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तुम्हारे बिना

चाँद मेरे आँगन में हर रोज उतरता भी है,
अपनी रुपहली किरणों से नित्य
मेरा माथा भी सहलाता है,
पर उस स्पर्श में वो स्निग्धता कहाँ होती है माँ,
जो तुम्हारी बूढ़ी उँगलियों की छुअन में हुआ करती थी !

चाँदनी हर रोज खिड़की की सलाखों से
मेरे बिस्तर पर आ अपने शीतल आवरण से
मुझे आच्छादित भी करती है,
अपनी मधुर आवाज़ में मुझे लोरी भी सुनाती है,
पर उस आवरण की छाँव में वो वात्सल्य कहाँ माँ
जो तुम्हारे जर्जर आँचल की
ममता भरी छाँव में हुआ करता था,
और उस मधुर आवाज़ में भी वह जादू कहाँ माँ
जो तुम्हारी खुरदुरी आवाज़ की
आधी अधूरी लोरी में हुआ करता था !

सूरज भी हर रोज सुबह उदित होता तो है,
अपने आलोकमयी किरणों से गुदगुदा कर
सारी सृष्टि को जगाता भी है ,
लेकिन माँ जिस तरह से तुम अपनी बाहों में समेट कर,
सीने से लगा कर, बालों में हाथ फेर कर मुझे उठाती थीं
वैसे तो यह सर्व शक्तिमान दिनकर भी
मुझे कहाँ उठा पाता है माँ !

दिन की असहनीय धूप में कठोर श्रम के बाद
स्वेदस्नात शरीर को सूर्य की गर्मी जो सन्देश देती है,
उसमें तुम्हारी दी अनुपम शिक्षा का वह
अलौकिक तेज और प्रखर आलोक कहाँ माँ
जिसने आज भी जीवन की संघर्षमयी,
पथरीली राहों पर मुझे बिना रुके, बिना थके
लगातार चलने की प्रेरणा दी है !

मुझे किसी चाँद, किसी सूरज की ज़रूरत नहीं थी माँ
मुझे तो बस तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी ज़रूरत है
क्योंकि उम्र के इस मुकाम पर पहुँच कर भी
आज मैं तुम्हारे बिना स्वयं को
नितांत असहाय और अधूरा पाती हूँ !

साधना वैद

Comments

लेकिन माँ जिस तरह से तुम अपनी बाहों में समेट कर,
सीने से लगा कर, बालों में हाथ फेर कर मुझे उठाती थीं
वैसे तो यह सर्व शक्तिमान दिनकर भी
मुझे कहाँ उठा पाता है माँ !
aankhen chhalchhala aayin , maa si shakti , maa sa pyaar aur kaha
क्योंकि उम्र के इस मुकाम पर पहुँच कर भी
आज मैं तुम्हारे बिना स्वयं को
नितांत असहाय और अधूरा पाती हूँ !


मान के प्रति अपनी भावनाओं को खूबसूरत शब्द दिए हैं ...यह सब पढ़ कर कभी तुलना करती हूँ आज की पीढ़ी की तो लगता है कि शायद यह एहसास आज कि युवा पीढ़ी भूल ही गयी है ..या शायद माँ भी यह महसूस कराना भूल गयी है ...पता नहीं ..बस मन में मंथन चल रहा है ...सुन्दर रचना
DR. ANWER JAMAL said…
अपना दुःख औलाद को ज़ाहिर कभी करती नहीं
देख कर खामोश बच्चे को तड़प जाती है माँ

इस खूबसूरत शेर के साथ हम आपका और आपकी इस बेहतरीन रचना का इस्तक़बाल करते हैं.
आपने सच लिखा है कि लोग चाहे सूरज को सर्वशक्तिमान का ही ख़िताब क्यों न दे दें लेकिन माँ के तेज के सामने वह मांद पड़ ही जाता है.
यह वाकई एक अच्छी खबर है कि प्यारी माँ ब्लॉग पर साधना वैद जी और जानी मानी शायरा रज़िया मिर्ज़ा साहेबा भी आ चुकी हैं और आते ही दोनों ने प्यारी माँ की ख़िदमत में काव्य रचना की शक्ल में अपना नजराना ए अक़ीदत भी पेश किया है . दोनों कलाम अपने आप में खूब से खूबतर हैं. हम इस्तकबाल करते हैं.
इस खुशखबरी का चर्चा आप यहाँ भी देख सकते हैं

http://blogkikhabren.blogspot.com/2011/03/blog-post_27.html
....जिसने आज भी जीवन की संघर्षमयी,
पथरीली राहों पर मुझे बिना रुके, बिना थके
लगातार चलने की प्रेरणा दी है !
बहोत भावपूर्ण रचना।
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 29 -03 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

http://charchamanch.blogspot.com/
Unknown said…
मां शब्द में ही अपनेपन का अहसास है। मैं बहुत खुशनसीब हूं कि मेरे पास मां है। लेकिन दुख इस बात का है कि मां से दूर हूं।
aek achchhi kvita or achchhi abhivykti !dhanyvaad ..
Minakshi Pant said…
मुझे किसी चाँद, किसी सूरज की ज़रूरत नहीं थी माँ
मुझे तो बस तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी ज़रूरत है
क्योंकि उम्र के इस मुकाम पर पहुँच कर भी
आज मैं तुम्हारे बिना स्वयं को
नितांत असहाय और अधूरा पाती हूँ !
maa jesa duniyan me koi or hai hi nahi
mridula pradhan said…
और उस मधुर आवाज़ में भी वह जादू कहाँ माँ
जो तुम्हारी खुरदुरी आवाज़ की
आधी अधूरी लोरी में हुआ करता था !
itni bhawbhini kavita padhkar aankh bhar gayee.wah kya likhti hain aap.
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आई हूँ साधना जी कि कविता ने तो मुझे भी अपनी माँ की याद दिला दी है |फिर से बचपन मेंलौट जाने का मन करता है |
बहुत सुंदर पोस्ट के लिए बधाई
आशा
आज मैं तुम्हारे बिना स्वयं को
नितांत असहाय और अधूरा पाती हूँ !

माँ तो माँ है.... अद्भुत रचना....
सादर... आभार...

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