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'माँ' The mother

मौत की आग़ोश में जब थक के सो जाती है माँ
तब कहीं जाकर ‘रज़ा‘ थोड़ा सुकूं पाती है माँ

फ़िक्र में बच्चे की कुछ इस तरह घुल जाती है माँ
नौजवाँ होते हुए बूढ़ी नज़र आती है माँ

रूह के रिश्तों की गहराईयाँ तो देखिए
चोट लगती है हमारे और चिल्लाती है माँ

ओढ़ती है हसरतों का खुद तो बोसीदा कफ़न
चाहतों का पैरहन बच्चे को पहनाती है माँ

एक एक हसरत को अपने अज़्मो इस्तक़लाल से
आँसुओं से गुस्ल देकर खुद ही दफ़नाती है माँ

भूखा रहने ही नहीं देती यतीमों को कभी
जाने किस किस से, कहाँ से माँग कर लाती है माँ

हड्डियों का रस पिला कर अपने दिल के चैन को
कितनी ही रातों में ख़ाली पेट सो जाती है माँ

जाने कितनी बर्फ़ सी रातों में ऐसा भी हुआ
बच्चा तो छाती पे है गीले में सो जाती है माँ

जब खिलौने को मचलता है कोई गुरबत का फूल
आँसुओं के साज़ पर बच्चे को बहलाती है माँ

फ़िक्र के श्मशान में आखिर चिताओं की तरह
जैसे सूखी लकड़ियाँ, इस तरह जल जाती है माँ

भूख से मजबूर होकर मेहमाँ के सामने
माँगते हैं बच्चे जब रोटी तो शरमाती है माँ

ज़िंदगी की सिसकियाँ सुनकर हवस के शहर से
भूखे बच्चों को ग़िजा, अपना कफ़न लाती है माँ

मुफ़लिसी बच्चे की ज़िद पर जब उठा लेती है हाथ
जैसे हो मुजरिम कोई इस तरह शरमाती है माँ

अपने आँचल से गुलाबी आँसुओं को पोंछकर
देर तक गुरबत पे अपनी अश्क बरसाती है माँ

सामने बच्चों के खुश रहती है हर इक हाल में
रात को छुप छुप के लेकिन अश्क बरसाती है माँ

कब ज़रूरत हो मिरी बच्चे को, इतना सोचकर
जागती रहती हैं आँखें और सो जाती है माँ

पहले बच्चों को खिलाती है सुकूनो चैन से
बाद में जो कुछ बचा, वो शौक़ से खाती है माँ

माँगती ही कुछ नहीं अपने लिए अल्लाह से
अपने बच्चों के लिए दामन को फैलाती है माँ

दे के इक बीमार बच्चे को दुआएं और दवा
पाएंती ही रख के सर क़दमों पे सो जाती है माँ

जाने अन्जाने में हो जाए जो बच्चे से कुसूर
एक अन्जानी सज़ा के डर से थर्राती है माँ

गर जवाँ बेटी हो घर में और कोई रिश्ता न हो
इक नए अहसास की सूली पे चढ़ जाती है माँ

हर इबादत, हर मुहब्बत में निहाँ है इक ग़र्ज़
बेग़र्ज़ , बेलौस हर खि़दमत को कर जाती है माँ

अपने बच्चों की बहारे जिंदगी के वास्ते
आँसुओं के फूल हर मौसम में बरसाती है माँ

ज़िंदगी भर बीनती है ख़ार , राहे ज़ीस्त से
जाते जाते नेमते फ़िरदौस दे जाती है माँ

बाज़ुओं में खींच के आ जाएगी जैसे कायनात
ऐसे बच्चे के लिए बाहों को फैलाती है माँ

एक एक हमले से बच्चे को बचाने के लिए
ढाल बनती है कभी तलवार बन जाती है माँ

ज़िंदगानी के सफ़र में गर्दिशों की धूप में
जब कोई साया नहीं मिलता तो याद आती है माँ

प्यार कहते है किसे और मामता क्या चीज़ है
कोई उन बच्चों से पूछे जिनकी मर जाती है माँ

पहले दिल को साफ़ करके खूब अपने खून से
धड़कनों पर कलमा ए तौहीद लिख जाती है माँ

सफ़हा ए हस्ती पे लिखती है उसूले ज़िंदगी
इस लिए इक मकतबे इस्लाम कहलाती है माँ

उसने दुनिया को दिए मासूम राहबर इस लिए
अज़्मतों में सानी ए कुरआँ कहलाती है माँ

घर से जब परदेस जाता है कोई नूरे नज़र
हाथ में कुरआँ लेकर दर पे आ जाती है माँ

दे के बच्चे को ज़मानत में रज़ाए पाक की
पीछे पीछे सर झुकाए दूर तक जाती है माँ

काँपती आवाज़ से कहती है ‘बेटा अलविदा‘
सामने जब तक रहे हाथों को लहराती है माँ

रिसने लगता है पुराने ज़ख्मों से ताज़ा लहू
हसरतों की बोलती तस्वीर बन जाती है माँ

जब परेशानी में घिर जाते हैं हम परदेस में
आँसुओं को पोंछने ख़्वाबों में आ जाती है माँ

लौट कर वापस सफ़र से जब घर आते हैं हम
डाल कर बाहें गले में सर को सहलाती है माँ

ऐसा लगता है कि जैसे आ गए फ़िरदौस में
भींचकर बाहों में जब सीने से लिपटाती है माँ

देर हो जाती है घर आने में अक्सर जब हमें
रेत पर मछली हो जैसे ऐसे घबराती है माँ

मरते दम बच्चा न आ पाए अगर परदेस से
अपनी दोनों आँखें चैखट पे रख जाती है माँ

बाद मर जाने के फिर बेटे की खि़दमत के लिए
भेस बेटी का बदल कर घर में आ जाती है माँ
       (...जारी)
शायर-‘रज़ा‘ सिरसवी,
ब्रांच सिरसी, मुरादाबाद, उ. प्र.

शब्दार्थ;
बोसीदा-पुराना, पैरहन-लिबास,
अज़्मो इस्तक़लाल-इरादा और मज़बूती
ग़िज़ा-भोजन, अश्क-आँसू, बेलौस-बिना लालच
ज़ीस्त-ज़िंदगी, नेमते फ़िरदौस-जन्नत की नेमत
कलमा ए तौहीद-ईश्वर के एकत्व की शिक्षा
सानी ए कुरआँ-कुरआन जैसे सम्मान की हक़दार
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जनाब ‘रज़ा‘ सिरसवी साहब का कलाम उनकी सोच की गहराई का खुद ही सुबूत है। मैंने बरसों पहले इस नज़्म को पढ़ा था जो कि ‘माँ‘ के नाम से उर्दू में किताबी शक्ल में मुझे मेरे एक मेरे एक ऐसे दोस्त से मिली थी जो कि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. के वंशज हैं और फ़ने शायरी में मैं उन्हें अपने उस्ताद का दर्जा देता हूँ। इस ब्लाग ‘प्यारी माँ‘ के वुजूद में आने की वजह यह किताब भी है। यह नज़्म बहुत लंबी है। इसका हरेक शेर दिल की गहराईयों से निकला है और दिल की गहराईयों तक ही पहुंचता भी है। ‘माँ‘ के तमाम रूप और तमाम जज़्बों को ही नहीं बल्कि एक औरत की हक़ीक़त को भी इस नज़्म में जनाब रज़ा साहब ने बड़े सलीक़े से पेश कर दिया है। ‘माँ‘ पर बहुत से छोटे बड़े शायरों और कवियों की रचनाएं मैंने पढ़ी हैं लेकिन इससे ज़्यादा पूर्ण और सुंदर कोई एक भी मुझे नज़र नहीं आई। जब आप इस नज़्म को पूरा पढ़ लेंगे तो आप भी यही कहेंगे। इस प्यारी नज़्म को इस ब्लाग पर क़िस्तवार अंदाज़ में पेश किया जाएगा, इंशा अल्लाह।

Comments

भाई जान कितनी बार कहा हैं कि छोटी पोस्ट लिखा करे. अउर बिना हड्डी के बात नहीं होती क्या.
माँ को सम्पूर्णता में लिख दिया आपने ... माँ के हर रूप को सूक्ष्मता से शब्दों में पिरोया है . एक एक शब्द प्रत्युत्तर में माँ का आशीष बन गए हैं
Minakshi Pant said…
माँ को समर्पित बहुत खुबसूरत रचना |
माँ को समर्पित बहुत खुबसूरत रचना |
घर से जब परदेस जाता हैं कोई नूर -ए -नज़र

हाथ में कुरान लेकर दर पेय आजाती हैं माँ


देके बच्चे को ज़मानत में रेज़ा -ए -पाक की

पीछे पीछे सर झुकाए दूर तक जाती हैं माँ


कांपती आवाज़ से कहती हैं बेटा अलविदा

सामना जब तक रहे हाथों को लहराती हैं माँ


याद आता हैं शब् -ए -आशूर का कडियल जवान

जब कभी उलझी हुई जुल्फों को सुलझाती हैं माँ


शिमर के कंजर से या सूखे गले से पूछिये


ऐसा लगता हैं किस्सी मकतल से अब भी वक़्त -ए -अस्र

एक बुरीदा सर से ज्यादा प्यासा हूँ सदा आती हैं माँ
माँ के सारे एहसास लिख दिए हैं ..बहुत सुन्दर
Bahut hi khoobsurat nazm hai... Anwar bhai, kisi din baki bhi post kar dijiyega....
Tumhen padh kar Bahut yaad aati hai pyari si maa, ai dost! teri nazm me nazar aati hai teri, meri aur hamari si maa!

Maa khuda ki bakshi hui azeem nemat hai "Maa"

Ramesh Ghildiyal, Kotdwar Uttarakhand
Kar irade buland apne, tod de pinjra tu saiyaad ka!
chal padegi jab chhuri, kya karogi iss jahaan-abad ka
POOJA... said…
maa kee sampoornata ko shabd de diye aapne... bahut-bahut dhnyawaad
Rajesh Kumari said…
maa ka smpoorn chitran kiya gaya hai .bahut bhaavpoorn prabhaav shali rachna.
ऐसा लगता है कि जैसे आ गए फ़िरदौस में
भींचकर बाहों में जब सीने से लिपटाती है माँ

poori nazm share karne ke liye shukriya, Anwar bhai! Bahot khoobsurat aur pak nazm hai

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