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गुटुक !



ये बनाया मैंने बांहों का घेरा
दुआओं का घेरा
खिलखिलाती नदियों की कलकल का घेरा
मींच ली हैं मैंने अपनी आँखें
कुछ नहीं दिख रहा
कौन आया कौन आया
अले ये तो मेली ज़िन्दगी है ...

ये है रोटी , ये है दाल
ये है सब्जी और मुर्गे की टांग
साथ में मस्त गाजर का हलवा
बन गया कौर
मींच ली हैं आँखें
कौन खाया कौन खाया
बोलो बोलो

नहीं आई हँसी
तो करते हैं अट्टा पट्टा
हाथ बढ़ाओ .....
ये रही गुदगुदी
कौन हंसा कौन हंसा
बोलो बोलो बोलो बोलो
जल्दी बोलो
मींच ली हैं आँखें मैंने
गले लग जाओ मेरे
और ये कौर हुआ - गुटुक !

Comments

और ये कौर हुआ ...गुटक
अपने बच्चे को खाना खिलाती माँ साकार हो रही है शब्दों में !
DR. ANWER JAMAL said…
बातेँ करती है जो बच्चे को लिटाकर गोद में
फूल से झड़ते हैं मुँह से ऐसे तुतलाती है माँ
सदा said…
मींच ली हैं आँखें मैंने
गले लग जाओ मेरे
और ये कौर हुआ - गुटुक !

मां का दुलार और प्‍यार इन शब्‍दों में बरबस ही छलक रहा है ...इस बेहतरीन रचना प्रस्‍तुति के लिये बधाई ...।

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