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अपना बल...



नीड़ के निर्माण में,
कभी तूफ़ान में , कभी गर्म थपेडों में...
कभी अनजानी राहों से...
कभी दहशत ज़दा रास्तों से...
माँ से अधिक तिनके उठाए नन्हें चिडों ने...
देने का तो नाम था...
उस देय को पाने के नाम पे...
एक बार नहीं सौ बार शहीद हुए॥
शहादत की भाषा भी नन्हें चिडों ने जाना॥
समय की आंधी में बने सशक्त पंखो को...
फैलाया माँ के ऊपर...
माँ सा दर्द लेकर सीने में॥
युवा बना नन्हा चिड़ा...
झांकता है नीड़ से बाहर,
डरता है माँ चिडिया के लिए...
"शिकारी के जाल के पास से दाना उठाना,
कितना खतरनाक होता है...
ऐसे में स्वाभिमान की मंजिल तक पहुँचने में...
जो कांटे चुभेंगे उसे कौन निकालेगा?"
चिडिया देखती है अपने चिडों को॥
उत्साह से भरती है, ख्वाब सजाती है, चहचहाती है...
"कुछ" उडानें और भरनी हैं...
यह "कुछ" अपना बल है...
फिर तो...
हम जाल लेकर उड़ ही जायेंगे...

Comments

ρяєєтii said…
Haaa, Kuch Aur UDANNE baaki hai, phir to.....ILu..!
DR. ANWER JAMAL said…
जब एक वाक़या बचपन का हमको याद आया
हम उन परिन्दों को फिर घोंसलों में छोड़ आए

एक अच्छी पोस्ट के लिए आपका शुक्रिया !
उस तरू से इस तरू पर आता

जाता हूँ धरती की ओर,

दाना कोई कहीं पड़ा हो

चुन लाता हूँ ठोक-ठठोर;

माँ, क्‍या मुझको उड़ना आया?

आप की कविता पड़कर बच्चन जी की यह कविता याद अ| गई बहुत सुंदर शब्द रचना धन्यवाद |
सदा said…
झांकता है नीड़ से बाहर,
डरता है माँ चिडिया के लिए...
"शिकारी के जाल के पास से दाना उठाना,
कितना खतरनाक होता है...
ऐसे में स्वाभिमान की मंजिल तक पहुँचने में...
जो कांटे चुभेंगे उसे कौन निकालेगा?"
चिडिया देखती है अपने चिडों को॥
उत्साह से भरती है, ख्वाब सजाती है, चहचहाती है...
"कुछ" उडानें और भरनी हैं...

बहुत ही गहन भावों का समावेश इस हृदयस्‍पर्शी रचना के लिये ....आभार ।

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