सर झुकाए ग़मज़दा बच्चा इधर आया नज़र दौड़ कर बच्चे को घर में ख़ुद बुला लाती है मां हर तरफ़ ख़तरा ही ख़तरा हो तो अपने लाल को रख के इक संदूक़ में दरया को दे आती है मां दर नया दीवार में बनता है इस्तक़बाल को ख़ाना ए काबा के जब नज़्दीक आ जाती है मां लेने आते हैं जो मौलाना इजाज़त अक्द की घर में जाती है कभी आंगन में आ जाती है मां शोर होता है मुबारकबाद का जब हर तरफ़ बेतहाशा शुक्र के सज्दे में गिर जाती है मां पोंछ कर आंसू दुपट्टे से, छुपा कर दर्द को ले के इक तूफ़ान बेटी से लिपट जाती है मां चूम कर माथाा, कभी सर और कभी कभी देकर दुआ कुछ उसूले ज़िंदगी बेटी को समझाती है मां होते ही बेटी के रूख्सत मामता के जोश में अपनी बेटी की सहेली से लिपट जाती है मां छोड़ कर घर बार जो सुसराल में रहने लगे अपने उस बेटे की सूरत को तरस जाती है मां करके शादी दूसरी हो जाए जो शौहर अलग ख़ूं की इक इक बूंद बच्चों को पिला जाती है मां छीन ले शौहर जो बच्चे, दे के बीवी को तलाक़ हाथ ख़ाली, गोद ख़ाली हाय रह जाती है मां सुबह दर्ज़ी लाएगा कपड़े तुम्हारे वास्ते ईद की शब बच्चों को ये कह के बहलाती है मां मर्तबा मां का ज़माना देख ले पेशे ख़ुदा इस ल...
बस एक माँ है जो मुझ से कभी ख़फ़ा नहीं होती